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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । रोहितसहजैकज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वतो व्यवहारविमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभवंति । भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषाकाराविर्भावितसहजै कज्ञायकस्वभूतार्थश्व देसिदो देशितः कथितः न केवलं व्यवहारो देशितः सुद्धणओ शुद्धनिश्चयनयोपि । दु शब्दादयं शुद्धनिश्चयनयोपीतिव्याख्यानेन भूताभूतार्थभेदेन व्यवहारोपि द्विधा, शुद्धनिश्चयाशुद्धनिश्चयभेदेन निश्चयनयोपि द्विधा इति नयचतुष्टयं । इदमत्र तात्पर्यं । यथा कोपि प्राम्यजनः सकर्दमं नीरं पिबति, नागरिकः पुनः विवेकीजनः कतकफलं निक्षिप्य निर्मलोदकं २४ है और शुद्धनय एक होनेसे भूतार्थ है इसलिये विद्यमान सत्य भूत अर्थको प्रगट करती है । इस बातको दृष्टांत से दिखलाते हैं । जैसे प्रबल कीचड़के मिलने से जिसका निर्मल स्वभाव आच्छादित होगया है ऐसे जलके पीनेवाले पुरुष बहुतसे तो ऐसे हैं कि जल और कीचड़का भेद न करके उस मैले जलको ही पीते हैं और कोई जीव अपने हाथ से निर्मली औषध डालकर कर्दम और जलको जुदा जुदा करनेसे जिसमें अपना पुरुषाकार दिखलाई दे ऐसे स्वाभाविक निर्मलस्वभावरूप जलको पीते हैं । उसीतरह प्रबलकर्मके संयोग होनेसे जिसका स्वाभाविक एक ज्ञायकभाव आच्छादित होगया है ऐसे आत्मा के अनुभव करनेवाले जो पुरुष हैं वे आत्मा और कर्मका भेद नहीं करके व्यवहारमें विमोहितचित्त हुए जिसके भावोंका अनेकरूपपना प्रगट हैं ऐसे अशुद्ध आत्माका ही अनुभव करते हैं और जो शुद्धनय के देखनेवाले जीव हैं वे अपनी बुद्धिसे पातनकी गई शुद्धनयके अनुसार ज्ञान होनेमात्रसे हुआ जो आत्मा और कर्मका भेद उससे अपने पुरुषाकाररूप स्वरूपकर प्रगट हुए स्वाभाविक एक ज्ञायकभावपनेसे जिसमें एक ज्ञायक भाव प्रकाशमान है ऐसे शुद्ध आत्माका अनुभव करते हैं । इसलिये जो पुरुष शुद्धनयको आश्रय करते हैं वे ही सम्यक् अवलोकन करते हुए सम्यग्दृष्टि हैं और दूसरे जो अशुद्ध नयको सर्वथा आश्रय करते हैं वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं। यहां शुद्धाय निर्मली - द्रव्यके समान जानना इसकारण कर्मसे भिन्न आत्माको जो देखना चाहते हैं उन्हें व्यवहारनय अंगीकार नहीं करनी चाहिये || भावार्थ - यहां व्यवहारनयको अभूतार्थ और शुद्धनयको भूतार्थ कहा है । जिसका विषय विद्यमान न हो असत्यार्थ हो उसे अभूतार्थ कहते हैं । उसका अभिप्राय ऐसा है कि शुद्धनयका विषय अभेद एकाकाररूप नित्यद्रव्य है इसकी दृष्टिमें भेद नहीं दीखता । इसलिये इसकी दृष्टिमें भेद अविद्यमान असत्यार्थ ही कहना चाहिये । ऐसा न समझना कि भेदरूप कुछ वस्तु ही नहीं है । यदि ऐसा माना जाय तो वेदांतमतवाले जैसे भेदरूप अनित्यको देख अवस्तु मायास्वरूप कहते हैं और सर्व व्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मको वस्तु कहते हैं वैसा हो जायगा । इसलिये सर्वथा एकांत शुद्धनयकी पक्षरूप मिध्यादृष्टिका ही प्रसंग आजायगा । इसका - I
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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