SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंधकर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवंति यदि सर्वे । कर्म च न ददासि त्वं दुःखितसुखिताः कथं कृतास्ते ॥ २५४ ॥ कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवंति यदि सर्वे । कर्म च न ददाति तव कृतोसि कथं दुःखितस्तैः ॥ २५५ ॥ कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवंति यदि सर्वे । कर्म च न ददति तव कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः ॥ २५६ ॥ सुखदुःखे हि तावजीवानां स्वकर्मोदयेनैव तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात् । स्वकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैवोपाळमाणत्वात् । ततो न कथंचनापि अन्योन्यस्य सुखदुःखे कुर्यात् । अतः सुखितदुःखितान् करोमि, सुखितदुःखितश्च क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानं । “सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यं । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात् पुमान् मरणजीवितदुःखसौख्यं ॥१६८॥ कदो तेहिं तर्हि शुभाशुभकर्म च न ददासि त्वं न प्रयच्छसि तेभ्यः कथं त्वं दुःखीकृतस्तैः ? न कथमपि । किं च तत्त्वज्ञानी जीवस्तावत् 'अन्यस्मै परजीवाय सुखदुःखे ददामि, इति विकल्प न करोति । यदा पुनर्निर्विकल्पसमाधेरभावे सति प्रमादेन सुखदुःखं करोमीति विकल्पो भवति तदा मनसि चिंतयति-अस्य जीवस्यांतरंगपुण्यपापोदयो जातः अहं पुनर्निमित्तमात्रमेव, इति दे नहीं सकते तो [ तैः ] उन्होंने [ त्वं सुखितः ] तू सुखी [ कथं कृतः ] कैसे किया ॥ टीका-प्रथम तो सुखदुःख जीवोंके अपने कर्मके उदयसे ही होते हैं इसलिये कर्मके उदयका अभाव होनेसे उन सुखदुःखोंके उदय होनेका असमर्थपना है । तथा अन्यपुरुष अपने कर्मको अन्यको नहीं देसकता वह कर्म अपने २ परिणामोंसे ही उत्पन्न होता है इसकारण एक दूसरेको सुख दुःख किसीतरह भी नहीं देसकता । जिसके ऐसा अध्यवसाय है कि मैं परजीवोंको सुखी दुःखी करता हूं और परजीवोंकर मैं सुखीदुःखी किया जाता हूं" यह अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है ॥ भावार्थ-जैसा आशय हो वैसा कार्य न हो ऐसा आशय अज्ञान है सो सब जीव अपने अपने कर्मके उदयकर सुखी दुःखी होते हैं ऐसा होनेपर जो इसतरह माने कि मैं परको सुखी दुःखी करता हूं और पर मुझे सुखी दुःखी करते हैं यह मानना निश्चयनयकर अज्ञान है। तथा निमित्तनैमित्तिकभावके आश्रयसे सुखदुःखका करनेवाला कहना वह व्यवहार है सो निश्चयकी दृष्टिमें गौण है ॥ अब इस अर्थका कलशरूप १६८ वां काव्य कहते हैंसर्व इत्यादि । अर्थ-इस लोकमें जीवोंके जो मरण जीवित दुःख सुख हैं वे सभी सदाकाल नियमसे अपने अपने कर्मके उदयसे होते हैं। ऐसा होनेपर परपुरुष परके मरण जीवित दुःख सुखको करता है यह मानना है वह अज्ञान है । फिर इसी अर्थको
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy