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________________ ३३२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंधछिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सचित्ताचित्ताणं करेइ व्वाणमुवघायं ॥ २३८ ॥ उवघायं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज हु किं पञ्चयगो दु रयवंधो ॥ २३९ ॥ जो सो दुणेहभावो तह्मि णरे तेण तस्स रयवंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्टाहिं सेसाहिं ॥ २४० ॥ प्रथमतस्तावद् बंधस्वरूपसूचनमुख्यत्वेन गाथादशकं । तदनंतरं निश्चयेन हिंसाहिंसाव्रताव्रतद्वयस्य लक्षणकथनरूपेण जो मण्णदि हिंसामि इत्यादि गाथासप्तकं । ततः परं बहिरंगद्रव्यहिंसा भवतु मा भवतु, निश्चयेन हिंसाध्यवसाय एव हिंसेति प्रतिपादनरूपेण जो मरदि इत्यादि' गाथाषट्कं । अथानंतरं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं यद् भेदविज्ञानं तस्माद्विलक्षणानि यानि व्रताव्रतानि तद्व्याख्यानमुख्यत्वेन एवमलिऐ इत्यादि सूत्रभूतगाथाद्वयं । तदनंतरं तस्यैव भावपुण्यपापरूपव्रताव्रतस्य शुभाशुभबंधकारणभूतस्य परिणामव्याख्यानमुख्यत्वेन वत्थं पड़च्च इत्यादि गाथात्रयोदश । एवं समुदायेन पंचदश । तदनंतरं निश्चये स्थित्वा व्यवहारो निषेध्यत इति कथनरूपेण ववहारणओ इत्यादि सूत्रषट्कं । अतः परं रागद्वेषरहितज्ञानिनां प्राशुकान्नपानाद्याहारो बंधकारणं न भवति इति पिंडशुद्धिव्याख्यानरूपेण आधाकम्मादीया इत्यादि सूत्रचतुष्टयं । तदनंतरं क्रोधादिकषायाः कर्मबंधनिमित्तं भवंति तेषां च चेतनाचेतनबहिर्द्रव्यं निमित्तं भवतीति प्रतिपादनरूपेण जह फलिहमणि विसुद्धो इत्यादि खांग प्रवेश करता है वहां प्रथम ही सब तत्त्वोंको यथार्थ जाननेवाला जो सम्यग्ज्ञान है वह बंधको दूर करता हुआ प्रगट होता है ऐसा अर्थ लेकर मंगलरूप काव्य कहते हैंरागोद्गार इत्यादि । अर्थ-ज्ञान, बंधको उड़ाता हुआ उदय होसा है । कैसा बंध है ? रागका उदय होना रूप महारस कर समस्त जगतको प्रमादी ( मतवाला ) करके और रसके भावसे पूर्ण बड़े नृत्य करके नाचता है । ऐसे बंधको उड़ाता है । ज्ञान आप कैसा है ? आनंदरूप अमृतका नित्य भोजन करनेवाला है तथा अपनी जाननक्रियारूप स्वाभाविक अवस्थाको प्रगटरूप नचाता हुआ उदय होता है, धीर है उदार है, निश्चल है, जिसका बड़ा विस्तार है, अनाकुल है अर्थात् जिसमें कुछ आकुलताका कारण नहीं रहता, परिग्रहसे रहित है कुछ परद्रव्यसंबंधी ग्रहणत्याग नहीं है। ऐसा ज्ञान उदयको प्राप्त होता है । भावार्थ-बंधतत्त्व रंगभूमिमें प्रवेश करता है उसको ज्ञान उड़ाके आप प्रगट हो नृत्य करेगा उसकी महिमा इस काव्यमें प्रगट की है । ऐसा अनंत ज्ञानस्वरूप आत्मा सदा प्रगट रहो ॥ आगे बंध तत्त्वका स्वरूप विचारते हैं। वहां प्रथम बंधके कारणको प्रगट करते हैं;-[ नाम] प्रगटकर कहते हैं कि [ यथा ] जैसे [ कोपि पुरुषः] कोई पुरुष [ लेहाभ्यक्तः तु] अपनी देहमें तैलादि लगाकर [ रेणुबहुले ] बहुत धूली
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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