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________________ ३२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जरायतो हि सम्यग्दृष्टिष्टकोत्कीर्णैकज्ञानभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्तिप्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभावनकरः ततोस्य ज्ञानप्रभावनाप्रकर्षकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव । जइजिणसमंइ पउंजह ता मा ववहारणिच्छए मुचह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तचं, इति । किं च-संवरपूर्विका निर्जरा या व्याख्याता सा सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य शुद्धात्मसम्यक्त्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपे मुख्यवृत्त्या निश्चयरत्नत्रये सति वीतरागधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपे शुभाशुभबहिर्द्रव्यनिरालंबने निर्विकल्पसमाधौ सति भवति, स च समाधिरतीव दुर्लभः । कस्मात् ? इति चेत्, एकेंद्रियविकलेंद्रियपंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलरूपेंद्रियपटुत्वनिाध्यायुष्कवरबुद्धिस कर भ्रमता है वह ज्ञानकी प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है । यह निश्चय प्रभावना है । जैसे व्यवहारकर जिनबिंबको रथमें स्थापनकर नगर वन आदिमें भ्रमाके प्रभावना करते हैं उसीतरह जानना । ऐसे सम्यग्दृष्टि ज्ञानीके निःशंकित आदिक आठ गुण कर्मकी निर्जराके कारण कहे गये हैं । इसीतरह अन्यभी सम्यक्त्वके गुण निर्जराके कारण जानना । तथा यहांपर निश्चयनय प्रधानकर कथन है इसलिये आत्माके ही परिणाम निःशंकारूप आदिकसे कहे हैं ॥ उसका सारांश ऐसा है कि जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने ज्ञान श्रद्धानमें निःशंक हो भयके निमित्तसे स्वरूपसे नहीं चिगता अथवा संदेहयुक्त न हो उसके निःशंकित गुण कहना चाहिये १, जो कर्मके फलकी वांछा न करे तथा अन्य वस्तुके धर्मोंकी वांछा न करे उसके निःकांक्षित गुण होता है २, जो वस्तुके धर्मों में ग्लानि न करे उसके निर्विचिकित्सा गुण होता है ३, जो स्वरूपमें मूढ न हो यथार्थ जाने उसके अमूढदृष्टि गुण होता है ४, जो आत्माको स्वरूपसे चिगते हुएको स्थापन करे उसके स्थितिकरण गुण होता है ६, जो आत्माको शुद्ध स्वरूपमें लगाये आत्माकी शक्ति बढाये अन्य धर्मोंको गौण करे उसके उपगूहन गुण होता है ५, जो अपने स्वरूपमें विशेष अनुराग रखे उसके वात्सल्य गुण होता है ७, जो आत्माके ज्ञानगुणको प्रकाशरूप प्रगट करे उसके प्रभावना गुण होता है ८, ॥ इन सब गुणोंके प्रतिपक्षी दोषोंकर कर्मका बंध होता था उसको नहीं होने देता और इनके होनेसे चारित्र मोहके उदयरूप शंकादि प्रवर्त हों तो उनकी निर्जरा ही होती है बंध नहीं होता क्योंकि बंध तो मिथ्यात्व सहित ही प्रधानतासे कहा है । जो चारित्र मोहके उदयसे सम्यग्दृष्टिके सिद्धांतमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें बंध कहा है वह भी निर्जरारूप ही जानना क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जैसे मिथ्यात्वके उदयमें बांधा हुआ कर्म क्षरता है वैसे ही नवीन बंधा हुआ भी क्षरता है इसके इस कर्मके स्वामीपनेका अभाव है इसलिये आगामी बंधरूप नहीं है निर्जरारूप ही है ॥ जैसे कोई पुरुष पराया द्रव्य उधार लाये उससे उसको ममता बुद्धि नहीं है वर्तमानमें उस द्रव्यसे कुछ कार्य कर लेना हो वह करके पहलेको करारपर
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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