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________________ अधिकारः ६ ] समयसारः । ३२३ यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णे कज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु च कांक्षाभावान्निष्कांक्षस्ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ॥ २३० ॥ जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु निव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेयच्वो ॥ २३९ ॥ यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणां । स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥ २३१ ॥ यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णेकज्ञायकस्वभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्साङभावान्निर्विचिकित्सः ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बंधः किंतु निर्जरैव ॥ २३१ ॥ सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो स चेतयिता आत्मा सम्यग्दृष्टिः संसारसुखे निष्कांक्षितो मंतव्यः । तस्य विषयसुखकांक्षाकृतो नास्ति बंधः किंतु पूर्वसंचितकर्मणो निर्जरैव भवति ॥ २३० ॥ जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं यश्चेतयिता आत्मा परमात्मतत्त्वभावनाबलेन जुगुप्सां निंदां दोषं विचिकित्सान्न करोति, केषां संबंधित्वेन ? सर्वेषामेव वस्तुधर्माणां स्वभावानां, दुर्गंधादिविषये वा सो खलु णिव्विदिगिंछो सम्मादिट्ठी मुणेव्व स सम्यग्दृष्टिः स्फुटं मंतव्यो ज्ञातव्यः तस्य च परद्रव्यद्वेषनिमित्तो नास्ति बंध:, वर्तमानकी पीड़ा सही नहीं जाती उसके मेंटनेके इलाजकी वांछा चारित्र मोहके उदयसे है । यह उसका आप कर्ता नहीं होता कर्मका उदय जानकर उसका ज्ञाता है । इसकारण वांछाकर किया गया वंध नहीं है ॥ २३० ॥ आगे निर्विचिकित्सा गुणकी गाथा कहते हैं; [ यः चेतयिता ] जो जीव [ सर्वे षामेव ] सभी [ धर्माणां ] वस्तुके धर्मों में [ जुगुप्सां ] ग्लानि [ न करोति ] नहीं करता [ स्वः ] वह जीव [ खलु ] निश्चयकर [ निर्विचिकित्सः ] विचिकित्सा दोषरहित [ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना ॥ टीकाजिसकारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपनेकर सभी वस्तुधर्मों में जुगुसाके अभाव से निर्विचिकित्स ( ग्लानिरहित ) है इसी कारण इसके विचिकित्साकर किया गया बंध नहीं है । निर्जरा ही होती है ॥ भावार्थ — सम्यग्दृष्टि वस्तुके धर्म जो क्षुधा तृषा शीत उष्ण आदि भाव तथा विष्ठा आदि मलिनद्रव्यों में ग्लानि नहीं करता । जुगुप्सानामा कर्म प्रकृतिका उदय आता है तब उसका आप कर्ता नहीं होता है ! इसलिये जुगुप्साकर किया इसके बंध नहीं है । प्रकृति रस ( फल ) देकर छूट जाती है इसकारण निर्जरा ही है ।। २३१ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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