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________________ ३०६ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जराकांक्षमाणं वेद्यभावं वेदयते स यावद्भवति तावत्कांक्षमाणो भावो विनश्यति । तस्मिन् विनष्टे वेदको भावः किं वेदयते ? । यदि कांक्षमाणवेद्यभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते । तदा तद्भवनात्पूर्वं विनश्यति कस्तं वेदयते ! यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोन्यस्तं वेदयते तदा तद्भवनात्पूर्व स विनश्यति । किं स वेदयते ? इति कांक्ष्यमाणभाववेदनानवस्था तां च विजानन् ज्ञानी किंचिदेव कांक्षति-वेद्यवेदकविभावचलत्वाद्वद्यते न खलु कांक्षितमेव तेन कांक्षति न किंचन विद्वान् सर्वतोप्यतिविरक्तिमुपैति ॥ १३७ ॥" २१६ ॥ सातोदयः कर्मतापन्नं वेद्यते तेन रागादिविकल्पेन, अनुभूयते । तदुभयमपि अर्थपर्यायापेक्षया समयं समयं प्रति विनश्वरं तं जाणगो दु णाणी उभयंपि ण कंखदि कयावि तदुभयमपि वेद्यवेदकरूपं वर्तमानं भाविनं च विनश्वरं जानन् सन् तत्वज्ञानी ना कि वेदकभावके वाद होनेवाला जो अन्य वेदक भाव वह उस वेद्यभावको वेदेगा तो उस वेदकभावके होनेके पहले वह वेद्यभाव विनस जाय तब वह वेदकभाव कौनसे भावको वेदे ? ऐसा कांक्षमाणभाव अर्थात् वेदनाकी वांछामें आता हुआ भाव उसकी अनवस्था है कहीं ठहराव नहीं। उस अनवस्थाको जानता हुआ ज्ञानी कुछ भी नहीं वांछता॥ भावार्थवेदकभाव ( वेदनेवाला भाव ) और वेद्यभाव ( जिसको वेदें) इन दोनोंमें काल भेद है । जब वेदकभाव होता है तब वेद्यभाव नहीं होता और जव वेद्यभाव होता है तब वेदकभाव नहीं होता । ऐसा होनेपर जब वेदकभाव आता है तब वेद्यभाव विनस जाता है तब वेदकभाव किसको वेदे ? और जब वेद्यभाव आता है तब वेदकभाव विनस जाता है तब वेदकभावके विना वेद्यको कोंन वेदे ? । इसलिये ज्ञानी दोनोंको विनाशीक जान आप जाननेवाला ही रहता है । यहां प्रश्न-आत्मा तो नित्य है उसे दोनों भावोंका वेदनेवाला क्यों नहीं कहते ? उसका समाधान-जो वेद्य वेदकभाव तो विभाव भाव हैं आत्माका स्वभाव तो नहीं हैं सो जिसकी वांछा की ऐसा वेद्यभाव जबतक वेदकभाव आया तबतक नष्ट होगया । ऐसें वांछित भोग तो हुआ ही नहीं इसकारण ज्ञानी निष्फल वांछा क्यों करे ? मनोवांछित होता नहीं है तब वांछा करना अज्ञान है ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं—वेद्य इत्यादि । अर्थ-वेद्यवेदकभाव हैं वे कर्मके निमित्तसे होते हैं इसलिये वे स्वभाव नहीं विभाव हैं और चलायमान हैं समय समयमें विनसते हैं इसलिये वांछितभाव नहीं वेदा जाता । इसीकारण ज्ञानी कुछ भी आगामी भोगोंको नहीं वांछता सभीसे वैराग्यभावको प्राप्त है ॥ भावार्थअनुभवगोचर जो वेद्यवेदकविभाव उनके कालभेद है इसलिये मिलाप नहीं-विधि मिलती नहीं तब आगामी बहुतकालसंबंधीकी वांछा ज्ञानी क्यों करे ॥ २१६॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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