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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [निर्जराज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावात केवलं पानकस्य ज्ञायक एवायं स्यात् ॥ २१३॥ एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णिच्छदे णाणी। जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ ॥ २१४॥ एवमादिकांस्तु विविधान् सर्वान् भावांश्च नेच्छति ज्ञानी । ज्ञायकभावो नियतः निरालंबस्तु सर्वत्र ॥ २१४ ॥ ___ एवमादयोऽन्येऽपि बहुप्रकाराः परद्रव्यस्य ये भावास्तान् सर्वानेव नेच्छति ज्ञानी तेन ज्ञानिनः सर्वेषामपि परद्रव्यभावानां परिग्रहो नास्ति इति सिद्धं ज्ञानिनोऽत्यंतनिष्परिग्रधम्मणिमित्तं धम्मं हि चरंति मोक्खलु ॥ २॥"२१३॥अथ परिग्रहत्यागव्याख्यानमुपसंहरति;इब्वादु एदु विविहे सव्वे भावेय णिच्छदे णाणी इत्यादिकान् पुण्यपापान् पानादिबहिर्भावान् सर्वतः परमात्मतत्त्वज्ञानी नेच्छति । अनिच्छन् स कथंभूतो भवन् ? जाणगभावो णियदो णीरालंबो य सव्वत्थ टंकोत्कीर्णपरमानंदज्ञायकैकस्वभाव एव भवति नियतो निश्चितः । पुनश्च कथंभूतो भवति? जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारिताएक ज्ञायक भाव उसके सद्भावसे यह ज्ञानी पानका केवल ज्ञायक ही है |भावार्थआहारके समान जानना ॥ २१३ ॥ - आगे कहते हैं कि इसीतरह अन्य जो अनेक प्रकारके परजन्य भाव उनको भी ज्ञानी नहीं चाहता;-[ एवमादिकान् तु ] इस प्रकारको आदि लेकर [विविधान् ] अनेक प्रकारके [ सर्वान् भावान् ] सब भावोंको [ ज्ञानी ] ज्ञानी [न इच्छति ] नहीं इच्छता । क्योंकि [नियतः ] नियमसे [ज्ञायकभाव:] आप ज्ञायक भाव है इसलिये [ सर्वत्र निरालंबः तु] सबमें निरालंब है ॥ टीकाइसी पूर्वोक्त प्रकारको आदि लेकर अन्य भी बहुत प्रकार परद्रव्यके जो स्वभाव हैं उन सबको ही ज्ञानी नहीं इच्छता इस कारण ज्ञानीके सभी परद्रव्योंके भावोंका परिग्रह नहीं है । इसतरह ज्ञानीका अत्यंत निष्परिग्रहपना सिद्ध हुआ। इसप्रकार यह ज्ञानी समस्त अन्य भावोंके परिग्रह कर शून्यपनेसे जिसने समस्त अज्ञान उगल दिया है ऐसा हुआ सब जगह अति निरालंबन स्वरूप होकर जुदा ही एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक भाव हुआ साक्षात् विज्ञानघन आत्माको अनुभवता है ॥ भावार्थ-पूर्वोक्त प्रकार आदि लेकर सभी अन्य भावोंका ज्ञानीके परिग्रह नहीं है क्योंकि सभी परभावोंको हेय जाने तब उनकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं होती । उदयमें आये हुएको अनासक्त हुआ भोगता है। संसार देहभोगोंसे रागरूप इच्छाके विना परिग्रहका अभाव कहा गया है। अब उस अर्थका कलशरूप कहते हैं—पूर्वबद्ध इत्यादि अर्थ-ज्ञानीके जो पूर्व बंधे अपने १ 'इव्वादुएदु' इति तात्पर्यवृत्तौ पाठः।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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