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________________ - १६ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । I वैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवत्येष एवाशेषद्रव्यांतरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते । न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायभावः पदार्थः शुद्धात्मा । एवं भणंति सुद्धा शुद्धनयावलंबिनः, तर्हि किं भणति । णादा समस्त अन्य द्रव्योंके भावोंकर भिन्नपनेसे सेवित हुआ 'शुद्ध' ऐसा कहा जाता है । और इसको ज्ञेयाकार होनेसे ज्ञायकपना प्रसिद्ध है । जैसे दाहने योग्य जो दाह्य ईंधन उसके आकार अग्नि होती है इसलिये अग्निको दहन कहते हैं तौभी अग्नि तो अग्नि ही है, ईंधन अग्नि नहीं है । उसीतरह ज्ञेयरूप आप नहीं है, आप तो ज्ञायक ही है । इस तरह उस ज्ञेयकर किया हुआ भी इस आत्माके अशुद्धपना नहीं है क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्थामें भी ज्ञायकभावकर जाना गया जो अपना ज्ञायकपना वही स्वरूपप्रकाशनकी -- जाननेकी अवस्थामें भी ज्ञायकरूप ही है ज्ञेयरूप नहीं हुआ । क्योंकि अभेदविवक्षासे कर्ता तो आप ज्ञायक और कर्म अपनेको जाना - ये दोनों एक आप ही है अन्य नहीं है । जैसे दीपक घटपटादिको प्रकाशित करता है उनके प्रकाशनेकी अवस्था में भी दीपक ही है और वही अपनी ज्योतिरूप लौके प्रकाशनेकी अवस्था में भी दीपक ही है कुछ दूसरा नहीं है । ऐसा जानना ॥ भावार्थ - अशुद्धपना परद्रव्यके संयोगसे आता है । वहां मूल द्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप होता ही नहीं, कुछ परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है । उस जगह द्रव्य दृष्टिसे तो द्रव्य जो है वो ही है और पर्याय ( अवस्था ) दृष्टि से देखा जाय तब मलिन ही दीखता है । उसीतरह आत्माका स्वभाव ज्ञायकपना मात्र है और उसकी अवस्था पुद्गलकर्मके निमित्तसे रागादिरूप मलिन है वह पर्याय है । उसकी दृष्टि से देखा जाय तब मलिन ही दीखता है और द्रव्य दृष्टिसे देखा जाय तब ज्ञायकपना तो ज्ञायकपना ही है कुछ जड़पना नहीं हुआ । यहांपर द्रव्यदृष्टिको प्रधानकर कहा है । जो प्रमत्त अप्रमत्तका भेद है वह तो परद्रव्यके संयोगजनित पर्याय है । यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टिमें गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है 1 द्रव्यदृष्टि शुद्ध है अभेदरूप है निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ हैं । इसलिये आत्मा ज्ञायक है इसमें भेद नहीं है इसकारण प्रमत्त अप्रमत्त नहीं कहा जाता । 'ज्ञायक' ऐसा नाम भी ज्ञेयके जाननेसे कहा जाता है क्योंकि ज्ञेयका प्रतिबिंब जब झलकता है। तब वैसा ही अनुभव में आता है । सो यह भी अशुद्धपना इसके नहीं कहा जासकता क्योंकि जैसे ज्ञेय ज्ञानमें प्रतिभासित हुआ वैसे ज्ञायकका ही अनुभव करनेपर ज्ञायक ही है यह मैं जाननेवाला हूं सो मैं ही हूं दूसरा कोई नहीं है - ऐसा अपना अपने अभेदरूप अनुभव हुआ तब उस जाननेरूप क्रियाका कर्ता आप ही है और जिसको जाना सो कर्म भी आप ही है । ऐसे एक ज्ञायकपनेमात्र आप शुद्ध है - यह शुद्धनयका विषय है । अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं । शुद्ध 1
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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