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________________ २७६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [निर्जरासुखरूपो दुःखरूपो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टेः रागादिभावानां सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा निर्जीयमाणोप्यजीर्णः सन् बंध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टस्तु रागादिभावाभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणोप्यजीर्णः सन्निर्जरैव स्यात् । “तद् ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्य च वा किल । यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुंजानोऽपि न बध्यते ॥ १३४ ॥" १९४ ॥ अथ ज्ञानसामर्थ्य दर्शयति; जह विसमुवभुजंतो वेजो पुरिसो ण मरणमुवयादि । पोग्गलकम्मस्सुयं तह भुंजदि व वज्झए णाणी ॥ १९५॥ यथा विषमुपमुंजानो वैद्यः पुरुषो न मरणमुपयाति । पुद्गलकर्मण उदयं तथा भुक्ते नैव बध्यते ज्ञानी ॥ १९५॥ अथ णिजरं जादि अथ अहो ततः कारणानिर्जरां याति स्वस्थभावेन निर्जराया निमित्तं भवति । मिथ्यादृष्टेः पुनः उपादेयबुद्ध्या, सुख्यहं दुःख्यहमिति प्रत्ययेन बंधकारणं भवति । किं च, यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरणं नेच्छति तथापि तलवरेण गृहीतः सन् मरणमनुभवति । तथा सम्यग्दृष्टिः यद्यप्यात्मोत्थसुखमुपादेयं च जानाति, विषयसुखं च हेयं जानाति । तथापि चारित्रमोहोदयतलवरेण गृहीतः सन् तदनुभवति, तेन कारणेन निर्जरानिमित्तं स्यात् । इति भावनिर्जराव्याख्यानं गतं ॥ १९४ ॥ अथ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसामर्थ्य दर्शयति;भावोंको नहीं उलंघके वर्तती । सो इस भावको जिस समय जीव अनुभवता है उस समय मिथ्यादृष्टिके तो उससे रागादिभावोंके होनेसे आगामी कर्मबंधका निमित्त होके निर्जरारूप हुआ भी निर्जरारूप नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आगामी बंध करके निर्जरारूप हुआ इसलिये बंध ही कहना चाहिये । और सम्यग्दृष्टिके उस सुखदुःखके अनुभवसे रागादि भावोंका अभाव होनेकर आगामी बंधके निमित्त नहीं होनेसे केवल निर्जरारूप ही होता है सो निर्जरारूप हुआ निर्जरा ही कहना चाहिये बंध नहीं कहसकते ॥ भावार्थ-कर्मका उदय आनेपर सुख दुःख भाव नियमसे उत्पन्न होते हैं उनको अनुभवते हुए मिथ्यादृष्टिके तो रागादिकके निमित्तसे आगामी बंधकर कर्म झड़ता है इसलिये निर्जरा किस कामकी ? बंध ही किया गया । और सम्यग्दृष्टिके उस अनुभवसे रागादिक भाव नहीं होते इसलिये आगामी बंधभी नहीं होता तो केवल निर्जरा ही हुई । इसतरह भावरूप होती है । इसके अर्थकी आगेके कथनकी सूचनाका कलशरूप श्लोक यह है- तज्ज्ञान इत्यादि । अर्थ-जो कर्मको भोगता हुआ भी कर्मसे नहीं बंधता यह कोई आश्चर्यरूप सामर्थ्य ज्ञानकी ही है अथवा विरागकी है । अज्ञानीको तो आश्चर्यको उपजानेवाली है और ज्ञानी यथार्थ जानता है ॥ १९४ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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