SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । कथं भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंभ ? इति चेत् ; [ संवर जह कणय मग्गितवियंपि कणयहावं ण तं परिचय | तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी उ णाणित्तं ॥ १८४ ॥ एवं जाणइ णाणी अण्णाणी मुणदि रायमेवादं । अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो ॥ १८५ ॥ यथा कनकमग्निततमपि कनकभावं न तं परित्यजति । तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वं ॥ १८४ ॥ एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी जानाति रागमेवात्मानं । अज्ञानतमोऽवच्छन्नः आत्मस्वभावमजानन् ॥ १८५ ॥ - यतो यस्यैव यथोदितभेद विज्ञानमस्ति स एव तत्सद्भावात् ज्ञानी सन्नेवं जानाति । यथा प्रचंडपावकप्रतप्तमपि सुवर्णं न सुवर्णत्वमपोहति तथा प्रचंड विपाकोपष्टब्धमपि ज्ञानं न ख्यत्वेन गाथात्रयं गतं ॥ १८१।१८२।१८३ ॥ अथ कथं भेदज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंभो भवतीति पृच्छति;—जह कणयमग्गितवियं कणयसहावं ण तं परिश्वयदियथा कनकं सुवर्णमग्नितप्तमपि तं कनकस्वभावं न परित्यजति । तह कम्मोदयतविदो ण चयदि णाणी दु णाणिन्तं तेन प्रकारेण तीव्रपरीत्रहोपसर्गेण कर्मोदयेन संतप्तोऽपि रागद्वेषमोहपरिणामपरिहारपरिणतो भेदरत्नत्रयलक्षणभेदज्ञानी न त्यजति । किं तत् ? –- शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणं ज्ञानित्वं पांडवादिवदिति । एवं जाणदि णाणी एवमुक्तप्रकारेण शुद्धात्मानं आगे पूछते हैं कि भेदविज्ञानसे ही शुद्धात्माकी प्राप्ति कैसे होती है ? उसका उत्तर गाथामें कहते हैं; - [ यथा ] जैसे [ कनकं ] सुवर्ण [ अग्नितप्तं अपि ] अ तप्त हुआ भी [तं ] अपने [ कनकभावं ] सुवर्णपनेको [ न परित्यजति ] नहीं छोड़ता [ तथा ] उसी तरह [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ कर्मोदयतप्तस्तु ] कर्मों के उदयसे तप्तायमान हुआ भी [ ज्ञानित्वं ] ज्ञानीपने स्वभावको [ न जहाति ] नहीं छोड़ता [ एवं ] इसतरह [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ जानाति ] जानता है । और [ अज्ञानी ] अज्ञानी [ रागमेव ] रागको ही [ आत्मानं ] आत्मा जानता है क्योंकि वह अज्ञानी [ अज्ञानतमोवच्छन्नः ] अज्ञानरूप अंधकार से व्याप्त है इसलिये [ आत्मस्वभावं ] आत्मा के स्वभावको [ अजानन् ] नहीं जानता हुआ प्रवर्तता 1 ॥ टीका - जिसके जैसा कहा गया है वैसा भेदविज्ञान है वही उस भेदज्ञानके सद्भावसे ज्ञानी हुआ ऐसा जानता है । जैसे प्रचंड अग्निसे तपाया हुआ भी सुवर्ण अपने सुवर्णपने स्वभावको नहीं छोडता उसीतरह तीव्रकर्मके उदयकर सहित हुआ भी ज्ञानी अपने ज्ञानपनेको नहीं छोड़ता, क्योंकि जो जिसका स्वभाव है वह हजारों कारण मि
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy