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________________ २४६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ आस्रवयो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहास्रवभावाभावात् निरास्रव एव, किंतु सोऽपि यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन दृष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वाऽशक्तः सनू जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलंकविपाकसभावात् पुद्गलकर्मबंधः स्यात् । अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य यावान् पूर्णो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति । ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा निरास्रव एव स्यात् । संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं मंप्रकृत्यादिपुद्गलरूपेण विविधपुण्यकर्मणा बध्यते । इति ज्ञात्वा ख्यातिपूजालाभभोगाकांक्षारूपनिदानबंधादिभावपरिणामपरिहारेण निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा तावत्पर्यंत शुद्धात्मरूपं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावत्तस्य शुद्धात्मस्वरूपस्य परिपूर्णः केवलज्ञानरूपो भावो दृष्टो ज्ञातोs है कि तभीतक ज्ञानको देखना जानना आचरण करना जबतक ज्ञानका पूर्णभाव जितना है उतना देखा जाना आचरण करना अच्छीतरह न हो जाय । उसके बाद साक्षात् ज्ञानी हुआ सर्वथा निरास्रव ही होता है । भावार्थ-ज्ञानीको निरास्रव इसतरह कहा है कि जबतक इसके क्षयोशमज्ञान है तबतक तो बुद्धिपूर्वक अज्ञानमय रागद्वेषमोहका अभाव है इसलिये निरास्रव है और जबतक क्षयोपशमज्ञान है तबतक दर्शन झान चारित्र जघन्य भावकर परिणमते हैं तबतक संपूर्ण ज्ञानका देखना जानना आचरण होना नहीं होता। सो इस जघन्यभावकर ही ऐसा जानते हैं कि इसके अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक विद्यमान है उसीसे बंधभी होता है वह चारित्रमोहके उदयकर है अज्ञानमय भाव नहीं है । इसलिये ऐसा उपदेश है कि जबतक ज्ञान संपूर्ण न हो-केवलज्ञान न प्रकट हो तबतक ज्ञानका ही ध्यान निरंतर करना ज्ञानको ही देखना, ज्ञानको ही जानना, ज्ञानको ही आचरना। इसी मार्गसे ही चारित्रमोहका नाश होता है और केवल ज्ञान प्रकट होता है तब सबतरहसे साक्षात् निरास्रव होता है । यह विवक्षा (वक्ताकी इच्छा)का विचित्र पना है । बुद्धिपूर्वकरागादिकके अभावकी अपेक्षा तो अबुद्धिपूर्वक रागादिक होनेपर भी निरास्रव कहा है और अबुद्धिपूर्वकका अभाव होनेवाद तो केवल ज्ञान ही उत्पन्न होगा तब साक्षात् निरास्रव होगा ही ऐसे जानना । अब इसी अर्थका कलशरूपकाव्य कहते हैं;-संन्य इत्यादि । अर्थ-यह आत्मा जब ज्ञानी होता है तब अपने बुद्धिपूर्वक रागको तो सबको ही आप दूर करताहुआ निरंतर प्रवर्तता है और अबुद्धिपूर्वक रागको भी जीतनेकेलिये वारंवार अपनी ज्ञानानुभवनरूप शक्तिको स्पर्शताहुआ प्रवर्तता १ धुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारा बाह्यविषयानालंब्य प्रवर्तते, प्रवर्तमानाश्च खानुभवगम्याः असमानेन परस्यापि गम्या भवंति । अबुद्धिपूर्वकास्तु परिणामा इंद्रियमनोव्यापारमंतरेण केवलमोहोदयनिमित्तास्ते तु खानुभवगोचरखादबुद्धिपूर्वका इति विशेषः।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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