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________________ २३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [आस्रवएव भवंतीति अर्थादेवापद्यते ॥ १६४ ॥ १६५ ॥ अथ ज्ञानिनस्तदभावं दर्शयति; णत्थि दु आसववंधो सम्मादिहिस्स आसवणिरोहो। संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो ॥१६६ ॥ नास्ति त्वास्रवबंधः सम्यग्दृष्टेरास्रवनिरोधः । संति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यवघ्नन् ॥ १६६ ॥ यतो हि ज्ञानिनोज्ञानमयैर्भावैरज्ञानमया भावाः अवश्यमेव निरुध्यते । ततो ऽज्ञानमयानां भावानां रागद्वेषमोहानां आस्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव आस्रवतत्र निर्विकल्पसमाधिभ्रष्टानां मोहसहितकर्मोदयो व्यवहारेण निमित्तं भवति । निश्चयेन पुनः अशुद्धोपादानकारणं स्वकीयरागाद्यज्ञानभाव एव ॥ १६४।१६५ ॥ अथ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानिनो जीवस्य रागद्वेषमोहरूपभावास्रवाणामभावं दर्शयति;-णत्थि इत्यादि पदखंडनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिठिस्स आसवणिरोहो न भवतः, न विद्यते । को ? तौ आस्रवबंधौ । गाथायां पुनः समाहारद्वन्द्वसमासापेक्षया द्विवचनमप्येकवचनं कृतं । कस्यास्रवबंधौ न स्तः? सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य । तर्हि किमस्ति ? आस्रवनिरोधलक्षणसंवरोऽस्ति सो स सम्यग्दृष्टिः संते संति विद्यमानानि ते तानि पुव्वणिबद्धे पूर्वनिबद्धानि ज्ञानावरणादि कर्माणि । अथवा प्रत्ययापेक्षया पूर्वनिबद्धान् मिथ्यात्वादिप्रत्ययान् जाणदि जानाति वस्तुस्वरूपेण जानाति । किं कुर्वन् सन् ? अबंधंतो विशिष्टभेदज्ञानबलानवतराण्यभिनवान्यबध्नन्-अनुपार्जयन् इति । अयमत्र भावार्थः । सरागवीतरागभेदेन द्विधा विरत सम्यग्दृष्टि आदिके चारित्रमोहके उदयसे जो रागादिक होते हैं उनका इसके स्वामीपना नहीं है उदयकी जबरदस्ती है उनको वह रोगके समान समझ मैंटना चाहता है इस अपेक्षा इनसे राग नहीं है इसलिये मिथ्यात्वसहित रागादिक जो होते हैं वे ही अज्ञानमय राग द्वेष मोह हैं वे सम्यग्दृष्टिके नहीं हैं ऐसा जानना चाहिये ॥१६४।१६५॥ ___ आगे ज्ञानीके उन आस्रवोंका अभाव दिखलाते हैं;-[सम्यग्दृष्टेः ] सम्यग्दृष्टिके [आस्रवबंधः ] आस्रव बंध [ नास्ति] नहीं है [तु] और [आस्रवनिरोधः] आस्रवका निरोध है [पूर्वनिबद्धानि] और जो पहलेके बांधे हुए [ संति ] सत्तामें मौजूद हैं [ तानि ] उनको [ अबध्नन् ] आगामी नहीं बांधता हुआ [ सः] वह [जानाति ] जानता ही है ॥ टीका-जिसकारण निश्चयसे ज्ञानीके अज्ञानमय भाव हैं वे अवश्य निरोधरूप ( अभावरूप ) होते हैं, ज्ञानमयभावोंसे अज्ञानमय भाव रुक जाते हैं और जिसकारण वे परस्पर विरोधी हैं विरोधियोंका एक जगह रहना होता नहीं है इसकारण राग द्वेष मोह भाव हैं वे अज्ञानमय हैं आस्रवस्वरूप हैं उनके निरोधसे ज्ञानीके आस्रवका निरोध होता ही है इसलिये ज्ञानी, आस्रवनिमित्तवाले ज्ञानावरण
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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