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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबंधकथा | एकत्वस्योपलंभः केवलं न सुलभो विभक्तस्य ॥ ४ ॥ 1 इह सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपितस्याश्रांतमनंतद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरावर्तैः समुपक्रांतभ्रांतेरेकत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोस्वि वाद्यमानस्य प्रसभोज्जृंभिततृष्णातंकत्वेन व्यक्तांतराधेरुत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुधानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनंतशः श्रुतपूर्वानंतशः परिचितपूर्वानंतशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुस्वरूपं सुलभं न भवतीत्याख्याति - "सुदपरिचिदाणुभूदा" इत्यादि । सुदा श्रुता अनंतशो भवति । ' परिचिदा परिचिता सपूर्वानंतशो भवति । अणुभूदा अनुभूतानंतशो भवति । कस्य । सव्वस्सवि सर्वस्यापि जीवलोकस्य । कासौ । कामभोगबंधकहा कामरूपभोगाः कामभोगाः अथवा कामशब्देन स्पर्शनरसनेंद्रियं भोगशब्देन प्राणचक्षुः श्रोत्रत्रयं तेषां कामभोगानां बंधः संबंधस्तस्य कथा । अथवा बंधशब्देन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधस्तत्फलं च नरनारकादिकहते हैं कि इस एकपनेको पा लेना ही अच्छा है; - [ सर्वस्य अपि ] सब ही लोकों को [ कामभोगबंधकथा ] काम भोग विषयक बंधकी कथा तो [ श्रुतपरिचितानुभूता] सुनने में आगई है, परिचयमें आगई है और अनुभव में भी आयी हुई है इसलिये सुलभ है । [नवरि ] लेकिन केवल [ विभक्तस्य ] भिन्न आत्माका [ एकत्वस्य उपलंभः ] एकपना होना कभी न सुना, न परिचयमें आया और न अनुभवमें आया इसलिये [ न सुलभः ] एक यही सुलभ नहीं है । टीका - इस समस्त जीवलोकको कामभोगविषयक कथा एकपनेकर विरुद्धता होनेसे अत्यंत विसंवाद करानेवाली है - आत्माका अत्यंत बुरा करनेवाली है तौभी अनंतवार पहले सुननेमें आई है, अनंतवार परिचय में आई है और अनंतवार अनुभव में भी आचुकी है । कैसा है जीवलोक ? संसाररूपी चक्रके मध्य में स्थित है, निरंतर अनंतवार द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप पलटनेकर जिसने भ्रमण किया है, समस्तलोकको एकछत्रराज्यसे वश करनेवाले बलवान मोहरूपी पिशाचसे गायकी तरह अथवा बैलकी तरह जोता गया है, जबरदस्तीसे बढी हुई तृष्णारूपी रोगके दाहपनेकर जिसके अंतरंगमें पीडा प्रगट हुई है, मृगकी तृष्णा के समान उछल २ कर इंद्रियोंके विषयोंके स्थानोंको अपने करता है । इतना ही नहीं आपस में आचार्यपना भी करता है अर्थात् दूसरे को भी कहकर अंगीकार ( स्वीकार ) कराता है । इसलिये काम भोगकी कथा तो सबको सुलभ ( सुखसे प्राप्त है । तथा भिन्न आत्माका जो एकपना है वह सदा प्रगटपनेकर अंतरंग में प्रकाशमान है तौभी कषायोंकर एकरूपसरीखा होरहा है इसलिये अत्यंत तिरोभाव होरहा ( ढक रहा ) हैआच्छादित है । इसकारण अपनेमें अनात्मज्ञपना होनेसे कभी अपनेको आप नहीं जाना और दूसरे आत्माके जाननेवालों की संगति-सेवा भी नहीं की । इसलिये कभी न सुनने में १२
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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