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________________ समयसारः । २०९ राकुलयंतीः श्रुतज्ञानबुद्धीरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यंतमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवंतमादिमध्यांतविमुक्तमनाकुलमेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि तरंतमिवाखंडप्रतिभासमयमनंतं विज्ञानघनं परमात्मानं समयसारं विंदन्नेवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च ततः सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च समयसार एव । आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयं । विज्ञानकरसः स नार्थ गाथाषट्कं । तदनंतरमज्ञानिसज्ञानिजीवयोर्विशेषव्याख्यानरूपेणैकादश गाथाः । ततश्चेतनाचेतनकार्ययोरेकोपादानकर्तृत्वलक्षणद्विक्रियावादिनिराकरणमुख्यत्वेन गाथापंचविंशतिः । तद स्वरूपमें सन्मुख करता हुआ अत्यंत निर्विकल्परूप होके तत्काल अपने निजरसकर ही प्रगट हुआ आदि मध्य अंतके भेदकर रहित अनाकुल एक (केवल ) समस्त पदार्थ समूहरूप लोकके ऊपर तैरता जैसा हो उस तरह अखंड प्रतिभासमय अविनाशी अनंत विज्ञान घनस्वरूप परमात्मारूप समयसारको ही अनुभवता सम्यक् प्रकार देखा जाता है श्रद्धान किया जाता है सम्यक् प्रकार जाना जाता है । इसलिये यह ही सम्यग्दर्शन है यही सम्यग्ज्ञान है ऐसा यही समयसार है ॥ भावार्थ-आत्माको पहले आगम ज्ञानसे ज्ञानस्वरूप निश्चयकर पीछे इंद्रियबुद्धिरूप मतिज्ञानको भी ज्ञानमात्रमें ही मिलाके श्रुतज्ञानरूप नयोंके विकल्प मेंट श्रुत ज्ञानको भी निर्विकल्पकर एक ज्ञानमात्र अखंड प्रतिभासका अनुभव करना यही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान नाम पाता है कुछ जुदा नहीं है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-आक्रामन् इत्यादि । अर्थ-जो नयोंके पक्षविना निर्विकल्प भावको प्राप्त हुआ निश्चल जैसा हो उसतरह समय (आगम, आत्मा ) का सार शोभता है, जो निश्चिंत पुरुषोंकर स्वयं आस्वाद्यमान है अर्थात् उन्होंने अनुभवसे जान लिया है वही यह भगवान् जिसका विज्ञान ही एक रस है ऐसा पवित्र पुराणपुरुष है । इसको ज्ञान कहो अथवा दर्शन कहो अथवा कुछ . अन्य नामसे कहो जो कुछ है सो यह एक ही है अनेक नामोंसे कहा जाता है । अब कहते हैं कि यह आत्मा झानसे च्युत हुआ था सो ज्ञानसे ही आय मिलता है- दूरं इत्यादि । अर्थ-यह आत्मा अपने विज्ञानघन स्वभावसे च्युत हुआ बहुत विकल्पोंके जालके गहनवनमें अत्यंत भ्रमण करता था उस भ्रमतेहुएको विवेकरूप नीचे मार्गमें गमनकर जलकीतरह अपने आप अपने विज्ञानघन स्वभावमें दूरसे आ मिला । कैसा है वह ? जो विज्ञानके रसके ही एक रसीले हैं उनको एक विज्ञानरस स्वरूप ही है। ऐसा आत्मा अपने आत्मस्वभावको अपनेमें ही समेंटता जैसे बाह्य गया था उसीतरह अपने खभावमें आके प्राप्त होता है । भावार्थ-यहां जलका दृष्टांत है । जैसे जल जलके निवासमेंसे किसी मार्गसे बाहर निकले तो वह वनमें अनेक जगह भ्रमता है फिर कोई २७ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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