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________________ १८२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । परमपेक्षते । ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु । तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इव जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म स्यात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वं । “स्थितेत्यविना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता तथा जपापुष्पादिकं कर्तृ स्फटिके जनयत्युपाधिं तथा काष्टस्तंभादौ किं न जनयतीति । अथैकांतेन परिणममानं परिणमयति । तदपि न घटते । न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते तर्हि जीवनिमित्तकर्तारमंतरेणापि स्वयमेव कर्मरूपेण परिणमतु । तथा च सति किं दूषणं । घटपटस्तंभादिपुद्गलानां ज्ञानावरणादिकर्मपरिणतिः स्यात् । स च प्रत्यक्षविरोधः । ततः स्थिता पुद्गलानां स्वभावभूता कथंचित्परिणामित्वशक्तिः तस्यां परिणामशक्तौ स्थितायां स पुद्गलः कर्ता । यं स्वस्य संबंधिनं ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपरिणामं पर्यायं करोति तस्य स एवोपादानकारणं कलशस्य मृत्पिंडमिव । न च जीवः, स तु निमित्तकारणमेव हेयतत्त्वमिदं । तस्मात्पुद्गलाद्व्यतिरिक्तशुद्धपरमात्मभावनापरिणताऽभेदरत्नत्रयलक्षणेन भेदज्ञानेन गम्यश्चिदानंदैकस्वभावो निजशुद्धात्मैव शुद्धनिश्वयेनोपादेयं भेदरत्नत्रयस्वरूपं तु उपादेयमभेदरत्नत्रयसाधकत्वाद्व्यवहारेणोपादेयमिति । एवं गाथा - यशब्दार्थव्याख्यानेन शब्दार्थो ज्ञातव्यः । व्यवहारनिश्चयरूपेण नयार्थो ज्ञातव्यः । सांख्यं प्रति मतार्थो ज्ञातव्यः । आगमार्थस्तु प्रसिद्धः । हेयोपादानव्याख्यानरूपेण भावार्थोपि ज्ञातव्यः । सिद्ध हुआ । ऐसा होनेपर संसारका अभाव होता है क्योंकि कर्मरूप हुऐ विना जीव कर्मरहित ठहरता है तो संसार किसका ? । और जो ऐसा तर्क करे कि जीव पुद्गल द्रव्यको कर्मभावकर परिणमाता है इसलिये संसारका अभाव नहीं होसकता उसका समाधान यह है कि पहले दो पक्ष लेकर पूछते हैं— जो जीव पुगलको परिणमाता है वह स्वयं अपरिणमतेको परिणमाता है या स्वयं परिणमतेको परिणमाता है ? उनमें से पहला पक्ष लिया जाय तो स्वयं अपरिणमतेको नहीं परिणमा सकता क्योंकि आप न परिणमतेको परके परिणमानेकी सामर्थ्य नहीं होती स्वतः शक्ति जिसमें नहीं होती वह परकर भी नहीं की जासकती । और जो पुद्गल द्रव्यको स्वयं परिणमतेको जीव कर्मभावकर परिणमाता है ऐसा दूसरा पक्ष लिया जाय तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि अपने आप परिणमते हुएको अन्य परिणमानेवालेकी आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वस्तुकी शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करती । इसलिये पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभाव स्वयमेव होवे । ऐसा होनेपर जैसे कलशरूप परिणत हुई मट्टी अपने आप कलश ही है। उसीतरह जड़ स्वभाव ज्ञानावरण आदि कर्मरूप परिणत हुआ पुद्गल द्रव्य ही आप ज्ञानावरण आदि कर्म ही है । ऐसे पुद्गल द्रव्यको परिणाम स्वभावपना सिद्ध हुआ || अब इस अर्थके कलशरूप काव्य कहते हैं । स्थिते इत्यादि । अर्थ - इसतरह उक्त प्रकारसे पुद्गल द्रव्यकी परिणमन शक्ति स्वभावभूत निर्विघ्न सिद्ध हुई । उसके सिद्ध होनेपर पुद्गल द्रव्य जिस भावको अपने करता है उसका वह पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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