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________________ समयसारः । १७१ नभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति संपद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचार एव न तु परमार्थः ॥ १०५॥ कथं इति चेत् ; जोधेहि कदे जुद्धे राएण कदंति जंपदे लोगो। तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ॥ १०६॥ योधैः कृते युद्धे राज्ञा कृतमिति जल्पते लोकः ।। तथा व्यवहारेण कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन ॥ १०६॥ - यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योधैः कृते युद्धे युद्धपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्य राज्ञो राज्ञा किल कृतं युद्धमित्युपचारो न परमार्थः। तथा ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन पुद्गलानां ज्ञानावरणादिरूपेण द्रव्यकर्मबंधस्य परिणामं पर्यायं दृष्ट्वा जीवेण कदं कम्मं भपणदि उवयारमत्तेण जीवेन कृतं कर्मेति भण्यते उपचारमात्रेणेति ॥ १०५ ॥ अथ तदेवोपचारकर्मकर्तृत्वं दृष्टांतदा ताभ्यां दृढयति;-जोधेहि कदे जुद्धे राएण कदंति जंपदे लोगो यथा योधैः युद्धे कृते सति राज्ञा युद्धं कृतमिति जल्पति लोकः । तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण तथा व्यवहारनयेन कृतं भण्यते ज्ञानावरणा[ दृष्टा ] देखकर [ जीवेन ] जीवने [कर्म कृतं ] कर्म किये हैं यह [ उपचारेण] उपचारमात्रसे [ भण्यते ] कहा जाता है । टीका-इस लोकमें आत्मा निश्चयकर स्वभावसे पुद्गलकर्मका निमित्तभूत नहीं है तो भी अनादि अज्ञानसे उसका निमित्तरूप हुआ जो अज्ञानभाव उसकर परिणमनेसे पुद्गलकर्मका निमित्तरूप होनेपर उत्पन्न जो पुद्गलकर्म उसको आत्माने किया ऐसा विकल्प होता है वह जो निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावसे भ्रष्ट हैं और विकल्पोंमें तत्पर हैं उन अज्ञानियोंके होता है । यह आत्माने किया ऐसा कहना उपचार है परमार्थ नहीं है ॥ भावार्थ-कदाचित् हुए निमित्तनैमित्तिकभावमें कर्तृकर्मभाव कहना उपचार है ॥ १०५ ॥ __ आगे यह उपचार कैसे है सो दृष्टांतकर कहते हैं;-[योधैः] जैसे योधाओंने [युद्धे कृते ] युद्ध किया उस जगह [लोक] लोक [इति जल्पते ] ऐसा कहते हैं कि [ राज्ञा कृतं] राजाने युद्ध किया सो यह [ व्यवहारेण ] व्यवहारसे कहना है [ तथा] उसीतरह [ज्ञानावरणादि ] ज्ञानावरणादि कर्म [जीवेण कृतं ] जीवने किये हैं ऐसा कहना व्यवहारसे है ॥ टीका-जैसे युद्धपरिणामोंसे आप परिणमे जो योधा उन्होंकर किये गये युद्धको युद्धपरिणामोंसे आप नहीं परिणत हुआ जो राजा उसको लोक कहते हैं कि युद्ध राजाने किया । ऐसा उपचार परमार्थ नहीं है । उसीतरह ज्ञानावरणादिकर्म परिणामोंसे आप परिणमता जो पुद्गलद्रव्य उस
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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