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________________ समयसारः । १५५ मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनो कर्ममनोवचनकाय श्रोत्रचक्षुर्प्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्ह्यानि ॥ ९४ ॥ तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्माई । कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ॥ ९५ ॥ त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकं । कर्त्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ॥ ९५ ॥ एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकार चैतन्यपरिणामः परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषविरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य ज्ञेयज्ञायकमानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनो कर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्माणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनेन प्रकारेणाविक्षिप्तचित्तस्वभावशुद्धात्मतत्त्वविलक्षणा असंख्येयलोकमात्रप्रमिता विभावपरिणामा ज्ञातव्या इति ॥ ९४ ॥ अथ – तिविहो एसुवओगो सामान्येनाज्ञानरूपेणैकविधोपि विशेषेण मिध्यादर्शनज्ञानचारित्ररूपेण त्रिविधः सन्नेष उपयोग आत्मा अस्सविपं करेदि धम्मादी परद्रव्यात्मनोज्ञेयज्ञायक भावापन्नयोर विशेषदर्शनेनाविशेषपरिणत्या च भेदज्ञानाभावाद्भेदमजानन् धर्मास्तिकायोहमित्याद्यात्मनोऽसद्विकल्पमुत्पादयति । कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स निर्मलात्मानुभूतिरहितस्वस्यैव मिथ्याविकल्परूपजीवपरिणामस्याशुद्धनिश्चयेन कर्त्ता भवति । ननु धर्मास्तिकायोहमित्यादि कोपि न ब्रूते तत्कथं घटत चैतन्य परिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है । इसतरह जैसे क्रोध कहा है उसीतरह क्रोधकी जगह मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन, ये पद पलटके सोलह सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये । और इसी उपदेश से अन्य भी विचार लेना ॥ भावार्थ — मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति ऐसे तीन प्रकार विकारसहित चैतन्य परिणाम है । सो आप परका भेद न जानकर ऐसा मानता है कि मैं क्रोधी हूं मैं मानी हूं इत्यादि । ऐसा मानने से अपने विकारसहित चैतन्यपरिणामका यह अज्ञानी जीव कर्ता होता है और जब कर्ता हुआ तब वे अज्ञानभाव अपने कर्म हुए । इसतरह अज्ञानसे ही कर्म होता है ॥ ९४ ॥ आगे कहते हैं कि ऐसें ही धर्मद्रव्य आदि अन्य द्रव्योंमें भी आत्मविकल्प करता है; – [ एषः ] यह [ उपयोगः ] उपयोग [ त्रिविधः ] तीन प्रकारका होने से [ धर्मादिकं ] धर्मआदिक द्रव्यरूप [ आत्मविकल्पं ] आत्मविकल्प [ करोति ] करता है उनको अपने जानता है [ सः ] वह [ तस्य ] उस [ उपयोगस्य ] उपयोगरूप [ आत्मभावस्य ] अपने भावका [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] होता है ॥ टीका - यह सामान्यकर अज्ञानरूप सविकार चैतन्य परिणाम वही मिध्यादर्शन अज्ञान अविरतिरूप तीन प्रकार है । जब यह परका और अपना परस्पर विशेष नहीं देखनेकर
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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