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________________ समयसारः । १५३ नसमर्थायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसंपादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादिभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्तन्निमित्तं तथाविधानुभवस्य चात्मनो भिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यंतभिन्नस्य ज्ञानात्परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति नानात्वविवेकाच्छीतोष्णरूपेणैवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोहं जानाम्येव, रज्यते तु पुद्गल इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञानविरुद्धस्याकर्ता प्रतिभाति ॥ ९३॥ कम्माणमकारओ होदि स निर्मलात्मानुभूतिलक्षणभेदज्ञानी जीवः कर्मणामकर्ता भवतीति । तथाहि-यथा कश्चित् पुरुषः शीतोष्णरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायास्तथाविधशीतोष्णानुभवस्य चात्मनः सकाशाद्भेदज्ञानात् शीतोहमुष्णोहमिति परिणतेः कर्ता न भवति । तथा जीवोपि निजशुद्धात्मानुभूतेर्भिन्नायाः पुद्गलपरिणामावस्थायास्तन्निमित्तसुखदुःखानुभवस्य च स्वशुद्धात्मभावनोत्थसुखानुभवाभिन्नस्य भेदज्ञानाभ्यासात्परात्मनोहेंदज्ञाने सति रागद्वेषमोहपरिणाममकुर्वाणः कर्मणां कर्ता न भवति । ततः स्थितं ज्ञानात्कर्म न प्रभवतीत्यभिप्रायः ॥ ९३ ॥ [भवति ] है । टीका- यह जीव ज्ञानसे परका और अपना परस्पर भेदकरि भेदज्ञान होनेसे परको तो आप नहीं करता है और अपनेको पर नहीं करता प्रवर्तता है तब आप ज्ञानी हुआ काँका अकर्ता प्रतिभासता है । यही प्रगटकर कहते हैं जैसे शीत उष्ण स्वरूप पुद्गल परिणामकी अवस्था है वह शीत उष्ण अनुभवन करानेको समर्थ है सो पुद्गलसे अभिन्नपनेकर आत्मासे निय ही अत्यंत भिन्न है उसीतरह रागद्वेष सुखदुःखादिरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था है वह रागद्वेषसुखदुःखादिरूप अनुभव कराने में समर्थ है ऐसी अवस्था जिसको निमित्त है और उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिअपनेकर पुद्गलसे अत्यंत सदा ही भिन्नताके ज्ञानसे परस्पर विशेषका भेदज्ञान होनेपर नानापनेके विवेकसे, जैसे शीत उष्णरूप आत्मा आपकर परिणमेको असमर्थ है उसतरह रागद्वेषसुखदुःखादिरूप भी आपकर परिणमनेको असमर्थ है । इसतरह अज्ञानस्वरूप जो रागद्वेषसुखदुःखादिक उनरूपकर नहीं परिणमता ज्ञानके ज्ञानपनेको प्रगट करता ज्ञानमय हुआ ऐसा जानता है कि "यह मैं रागद्वेषादिकको जानता ही हूं और ये रागरूप पुद्गल हैं। इत्यादि विधानकर सर्व ही जो ज्ञानसे विरुद्ध रागादिक कर्म उनका कर्ता नहीं प्रतिभासता ॥ भावार्थ-जब रागद्वेषसुखदुःख अवस्थाको ज्ञानसे भिन्न जाने "कि जैसे पुद्गलकी शीत उष्ण अवस्था है उसीतरह रागद्वेषादिक भी हैं" ऐसा भेदज्ञान हो तब अपनेको ज्ञाता जाने रागादिरूप पुद्गलको जाने । ऐसा होनेपर इनका कर्ता आत्मा नहीं होता ज्ञाता ही रहता है ॥ ९३ ॥ २० समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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