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________________ १४६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । रतिरित्यादयो भावाः खद्रव्यखभावत्वेनाजीवेन भाव्यमाना अजीव एव । तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण जीवेन भाव्यमाना जीव एव ॥ ८७॥ काविह जीवाजीवाविति चेत् ; पुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमन्जीवं । उवओगो अण्णाणं अविरइ मिच्छं च जीवोदु ॥८८॥ पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः। उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु ॥ ८८॥ यः खलु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूर्ताचैतन्यपरिणामादन्यत् मूर्त मयूरमुकुरंदवत् । तद्यथा-यथा मयूरेण भाव्यमाना अनुभूयमाननीलपीताद्याहारविशेषा मयूरशरीराकारपरिणता मयूर एव चेतना एव । तथा निर्मलात्मानुभूतिच्युतजीवेन भाव्यमाना अनुभूयमानाः सुखदुःखादिविकल्पा जीव एवाशुद्धनिश्चयेन चेतना एव । यथा च मुकुरंदेन स्वच्छतारूपेण भाव्यमानाः प्रकाशमानमुखप्रतिबिंबादिविकारा मुकुरंद एव अचेतना एव तथा कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्येणोपादानभूतेन क्रियामाणा ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायाः पुद्गल एव अचेतना एवेति ॥ ८७॥ अथ कतिविधौ जीवाजीवाविति पृष्ठे प्रत्युत्तरमाह;पुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमजीवं पुद्गलकर्मरूपं मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमित्यजीवः । उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छत्त जीवो दु द्रव्यस्वभावकर अजीवपनेकर भाये हुए अजीव ही हैं तथा वे मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति आदि भाव चैतन्यके विकारमात्रकर जीवकर भाये हुए जीव ही हैं ॥ भावार्थकर्मके निमित्तसे जीव विभावरूप परिणमते हैं वे जो चेतनके विकार हैं वे जीव ही हैं और जो पुद्गल मिथ्यात्वादिकर्मरूप परिणमते हैं वे पुद्गलके परमाणू हैं तथा उनका विपाक उदयरूप हो स्वादरूप होते हैं वे मिथ्यात्वादि अजीव हैं । ऐसे मिथ्यात्वादि भाव जीव अजीवके भेदसे दो प्रकार हैं । यहांपर ऐसा जानना कि जो मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृतियां हैं वे पुद्गल द्रव्यके परमाणू हैं उनका उदय हो तब उपयोगस्वरूप जीवके उपयोगकी स्वच्छताके कारण जिसके उदयका स्वाद आये तब उसीके आकार उपयोग हो जाता है तब अज्ञानसे उसका भेदज्ञान नहीं होता उस स्वादको ही अपना भाव जानता है । सो इसका भेदज्ञान ऐसा हो कि जीवभावको जीव जानें अजीवभावको अजीव जानें तभी मिथ्यात्वका अभाव होके सम्यग्ज्ञान होता है ॥८७॥ __ आगे पूछते हैं कि ये मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे हैं वे कोंन हैं उसका उत्तर कहते हैं-[ मिथ्यात्वं ] जो मिथ्यात्व [ योगः ] योग [अविरतिः] अविरति [अज्ञानं ] अज्ञान [अजीवः ] ये अजीव हैं वे तो [ पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म हैं [च] और जो [ अज्ञानं ] अज्ञान [ अविरतिः ] अविरति [ मिथ्यात्वं ]
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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