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________________ समयसारः। . १३१ खपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवति इति चेत् ; णवि परिणमदि ण गिलदि उप्पजदि ण परद्वपज्जाये । णाणी जाणतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं ॥ ७७॥ नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु खकपरिणाममनेकविधं ॥ ७७॥ यतो यं प्राप्यं विकार्य निर्वर्यं च व्याप्यलक्षणमात्मपरिणामं कर्म आत्मना स्वयमतापकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमंतापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः अथ स्वपरिणाम संकल्पविकल्परूपं जानतो जीवस्य तत्परिणामनिमित्तेनोदयागतकर्मणा सह तादात्म्यसंबंधो नास्तीति दर्शयति;-सगपरिणामं अणेयविहं क्षायोपशमिकं संकल्पविकल्परूपं स्वेनात्मनोपादानकारणभूतेन क्रियमाणं स्वपरिणाममनेकविधं णाणी जाणतो वि ह निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानी जीवः स्वपरमात्मनो विशिष्टभेदज्ञानेन जानन्नपि हु स्फुटं णवि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पजदि ण परदव्वपज्जाये तस्य पूर्वोक्तस्वकीयपरिणामस्य निमित्तभूतसमुदायागतं पुद्गलकर्मपर्यायरूपं मृत्तिकाकलशरूपेणेव शुद्धनिश्चयनयेन न परिणमति न तन्मयत्वेन गृह्णाति न तत्पर्यायेणोत्पद्यते च । कस्मात् मृत्तिकाकलशयोरिव तेन पुद्गलकर्मणा __ आगे पूछते हैं कि अपने परिणामोंको जानता हुआ जो जीव उसका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव है कि नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं;-[ज्ञानी] ज्ञानी [खकपरिणामं] अपने परिणामोंको [अनेकविधं ] अनेक प्रकार [जानन् अपि] जानता हुआ भी [खलु] निश्चयकर [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यके पर्यायमें [नापि परिणमति ] न तो परिणता है [न गृह्णाति ] न उसको ग्रहण करता है । न उत्पद्यते] और न उपजता है इसलिये उसके साथ कर्ता कर्मभाव नहीं है । टीकाजिसकारण यह ज्ञानी, प्राप्य विकार्य निर्वर्य इसतरह जिसका लक्षण व्याप्य है ऐसा तीन प्रकार कर्म आत्मके अपना परिणाम ही है उसे अपने आप अपनेकर अंतापक होके आदि मध्य अंतमें व्याप्यकर उसीको ग्रहण करता है उसीरूप परिणमता है उसी तरह उत्पन्न होता है । इसप्रकार उसी अपने परिणामरूप कर्मको करता हुआ है। उसको आप जानता हुआ भी बाह्य तिष्ठे हुए परद्रव्यके परिणामको 'जैसे मट्टी कलशको व्यापकर करती है उसीतरह' आप उस परद्रव्यके परिणाममें आदि मध्य अंतमें व्यापकर न तो उसे ग्रहण करता है न उसरूप परिणमता है और न उसतरह उपजता है इसकारण प्राप्य विकार्य निर्वर्य तीन प्रकार व्याप्य लक्षण परद्रव्यका परिणामरूप कर्म
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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