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________________ १२४ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । एव । शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृंभमाणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनखभावो जीव एव । बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवत् त्रातुमशक्यत्वादशरणाः खल्वास्रवाः, सशरणः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवाकुलस्वभावत्वाद् दुःखानि खल्वास्रवाः, अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव । आयत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वाद् दुःखफलाः खल्वास्रवाः अदुःखफलः सकलस्यापि निरुपाधिस्फटिकवच्छुद्धजीवस्वभावाः । अधुवा विद्युच्चमत्कारवदध्रुवा अतीवक्षणिकाः । ध्रुवः शुद्धजीव एव | अणिच्चा शीतोष्णज्वर । वेशवदध्रुवापेक्षया क्रमेण स्थिरत्वं न गच्छंतीत्यनित्या विनश्वराः नित्यश्चिच्चमत्कारमात्रशुद्ध जीव एव । तहा असरणा य तथा तेनैव प्रकारेण तीत्रकामोद्रेकवत् त्रातुं धत्तुं रक्षितुं न शक्यंत इत्यशरणाः शरणो निर्विकारबोधस्वरूपः शुद्धजीव एव । दुक्खा आकुलत्वोत्पादकत्वाद् दुःखानि भवंति कामक्रोधाद्यास्रवाः अनाकुलत्वलक्षणत्वात्पारमार्थिक सुखस्वरूप शुद्धजीव एव । दुक्खफलाणि य आगामिनारकादिदुःखफलकारणत्वाद् दुःखफलाः खल्वास्रवाः वास्तवसुखफलस्वरूप शुद्धजीव एव । णादूण णिवत्तदे तेसु इति भेदविज्ञानांनंतरमेव इत्थंभूतान्मिथ्यात्वरागाद्यास्त्रवान् ज्ञात्वास्रवेभ्यो यस्मिन्नेव क्षणे मेघपटलर जीवके साथ निबद्ध हैं [ अध्रुवा: ] अध्रुव हैं [ तथा ] और [ अनित्याः ] अनित्य हैं [ च ] तथा [ अशरणा: ] अशरण हैं [ दुःखानि ] दुःखरूप हैं [च] और [ दुःखफलाः ] जिनका फल दुःख ही है [ इति ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर ज्ञ पुरुष [ तेभ्यः ] उनसे [ निवर्तते ] निवृत्ति करता है ॥ टीका – ये आव हैं लाख वृक्ष इन दोनोंकी तरह बध्य घातक स्वभाव हैं । जैसे पीपल आदिके वृक्ष में लाख उत्पन्न होती है उससे वृक्ष बंध जाता है वाद में उसके निमित्तसे वृक्षका नाश हो जाता है । इसी तरह बध्य घातक स्वभावरूप जीवसहित बंधे हैं और विरुद्ध स्वभाववाले हैं इस कारण जीव ही नहीं हैं ऐसे आस्रव हैं वे मृगीके वेगकी तरह बढते जाते हैं फिर घटते हैं इसतरह अध्रुव हैं, जीव तो चैतन्य भावमात्र है सो ध्रुव है । वे आस्रव शीतदाहज्वर के स्वभावकी तरह क्रमसे उत्पन्न होते हैं इसलिये अनित्य हैं और जीव विज्ञानघन स्वभाव है इसकारण नित्य है । वे आस्रव अशरण हैं जैसे कामसेवनमें वीर्यका बंध छूटे उसीसमय अत्यंत कामका संस्कार क्षीण होजाता है किसीसे नहीं रोका जाता उसीतरह उदयकाल आनेके बाद आस्रव झड़ हैं रोके नहीं जासकते इसलिये अशरण हैं, और जीव अपनी स्वाभाविक चित्शक्तिरूप कर आप ही रक्षा रूप है इसलिये शरण सहित है । वे आस्रव सदा ही आकुलता स्वभावको लिये हुए हैं इसलिये दुःखरूप हैं, और जीव सदा ही निराकुलस्वभाव रूप है इसकारण सुखरूप है । आस्रव हैं वे आगामी कालमें आकुलताके उत्पन्न करानेवाले पुगलपरिणामके कारण हैं इसलिये वे दुःखफल स्वरूप हैं और 1
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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