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________________ १२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चेतकत्वादनन्यस्वभाव एव । आकुलत्वोत्पादकत्वाद् दुःखस्य कारणानि खल्वास्रवाः भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वाद् दुःखस्याकारणमेव । इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिम्य आस्रवेभ्यो निवर्त्तते । तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञानासिद्धेः । ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौगलिकस्य कर्मणो बंधनिरोधः सिद्ध्येत् । किं च यदिदमात्मासवयोमैदज्ञानं तत्किमज्ञानं किं वा ज्ञानं? यद्यज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । तथैव निजात्मनः संबंधि निर्मलात्मानुभूतिरूपं शुचित्वं सहजशुद्धाखंडकेवलज्ञानरूपं ज्ञातृत्वमनाकुलत्वलक्षणानंतसुखत्वं च ज्ञात्वा ततश्च स्वसंवेदनज्ञानानंतरं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैकाग्र्यपरिणतिरूपे परमसामयिके स्थित्वा क्रोधाद्यास्रवाणां निवृत्तिं करोति जीवः । इति ज्ञानमात्रादेव बंधपरको नहीं जानता उसको दूसरा ही जानता है और आत्मा जो है वह सदा ही विज्ञानघनस्वभाव है इसलिये आप ज्ञाता है आस्रवोंसे अन्य स्वभाव है अपनेको परको जानता है । आस्रव हैं वे दुःखके कारण हैं इसलिये आत्माको आकुलताके उपजानेवाले हैं और भगवान् आत्मा सदा ही निराकुल स्वभाव है इसकारण किसीका न तो कार्य है और न किसीका कारण है इसलिये दुःखका कारण नहीं हैं। इसतरह आत्मा और आस्रवोंके तीन विशेषणोंकर भेद देखनेसे जिस समय भेद जान लिया उसीसमय क्रोधादिक आस्रवोंसे निवृत्त होजाता है । और उनसे जब तक निवृत्त नहीं हो तबतक उस आत्माके पारमार्थिक सच्ची भेदज्ञानकी सिद्धि नहीं होती । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि क्रोधादिक आस्रवोंकी निवृत्तिसे अविनाभावी जो ज्ञान उसीसे अज्ञानकर हुआ पुद्गलीककर्मके बंधका निरोध होता है । यहां यह विशेष जानना कि यह आत्मा और आस्रवका भेद है वह अज्ञान है कि ज्ञान ? यदि अज्ञान है तो आस्रवसे अभेद हुआ विशेष नहीं हुआ, तथा यदि ज्ञान है तो आस्रवों में प्रवर्तता है कि उनसे निवृत्तिरूप है ? यदि आस्रवोंमें प्रवर्तता है तो ज्ञान आस्रवोंसे अभेदरूप अज्ञान ही है इससे भी विशेपता नहीं हुई और जो आस्रवोंसे निवृत्तिरूप है तो ज्ञानसे ही बंधका निरोध क्यों नहीं सिद्ध हुआ कहसकते ? सिद्ध ही हुआ कह सकते हैं । ऐसा सिद्ध होनेसे अज्ञानका अंश ऐसी क्रियानयका खंडन हुआ । तथा जो आत्मा और आस्रवोंका भेद ज्ञान है वह भी आस्रवोंसे निवृत्त न हुआ तो वह ज्ञान ही नहीं है ऐसा कहनेसे ज्ञानका अंश ऐसे ज्ञाननयका निराकरण हुआ ॥ भावार्थ-आस्रव अशुचि हैं जड़ हैं दुःखके कारण हैं और आत्मा पवित्र है ज्ञाता है सुखस्वरूप है । ऐसें दोनोंको लक्षणभेदसे भिन्न जानकर आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त होता है उसके कर्मका बंध नहीं होता क्योंकि यदि ऐसा जाननेसे भी निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है अज्ञान ही है। यहां कोई प्रश्न करे कि अविरत सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व अनंतानुबंधी प्रकृतियोंका तो आस्रव नहीं
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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