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________________ ___समयसारः। ११७ क्रोधादि तत्कर्म । एवमियमनादिरज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिः । एवमस्यात्मनः स्वयमज्ञानात्कर्तृकर्मभावेन क्रोधादिषु वर्तमानस्य तमेव क्रोधादिनिवृत्तिरूपं परिणाम निमित्तमात्रीकृत्य स्वयमेवपरिणममानं पौगलिकं कर्म संचयमुपयाति । एवं जीवपुद्गलयोः परस्परादास्रवे सति ततो मलादितैलसंबंधेन मलबंधवत्प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशलक्षणः स्वशुद्धात्मावाप्तिस्वरूपमोक्षविलक्षणो बंधो भवति । जीवस्यैवं खलु स्फुटं भणितं सर्वदर्शिभिः सर्वज्ञैः । किं च यावत्क्रोधाद्यास्रवेभ्यो भिन्नं शुद्धात्मस्वरूपं स्वसंवेदनज्ञानबलेन न जानाति तावत्कालमज्ञानी भवति । अज्ञानी सन् अज्ञानजां कर्तृकर्मप्रवृत्तिं न मुंचति तस्माद्वंधो भवति । बंधात्संसारं त्मपनेकर प्रवर्तता है वहां प्रवर्तनेवालेके ज्ञानकी क्रियारूप प्रवृत्तिके स्वभावभूतपना है परके निमित्तसे न होनेकर उसका निषेध नहीं है। इसलिये उस ज्ञानक्रियासे जानता है यह विभावपरिणति नहीं है । सो जिसतरह ज्ञानक्रियारूप परिणमता है उसीतरह संयोगसिद्धसंबंधरूप जो आत्मा और क्रोधादिक आस्रव उनमें भी अपने अज्ञानभावकर विशेष ( भेद ) नहीं जानताहुआ जबतक भेद नहीं देखता तबतक निःशंक. पनेसे क्रोधादिमें आत्मपनेकर प्रवर्तता है । वहां प्रवर्ततेहुएके जो क्रोधादि क्रिया है वह परभावसे हुई है इसलिये वे क्रोधादि प्रतिषेधरूप हैं तो भी उनमें स्वभावसे हुएका इसके निश्चय है इसकारण आप क्रोधरूप परिणमता है रागरूप परिणमता है मोहरूप परिणमता है। सो यहां आत्मा अपने अज्ञानभावसे ज्ञानभवनमात्र स्वभावसे हुई उदासीन ज्ञाता द्रष्टा मात्र अवस्थाका त्यागकर क्रोधादिव्यापाररूप परिणमता हुआ प्र. तिभासता है प्रवर्तता है इसलिये काँका कर्ता होता है । तथा जो ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवर्तनेसे जुदे कियेगये अंतरंगमें उत्पन्न क्रोधादिक प्रतिभासनेमें आते हैं वे उस कर्ताके कर्म हैं । इसतरह यह अनादिकालसे हुई इस आत्माकी कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है । ऐसे अपने अज्ञानभावसे कर्ताकर्मभावकर क्रोधादिकोंमें वर्तमान जो यह आत्मा उसके क्रोधादिककी प्रवृत्तिरूप परिणामको निमित्तमात्रकर आप अपने भावोंकर परिणमताहुआ पुद्गलमय कर्म संचयको प्राप्त होता है। इसतरह जीवके और पुद्गलके परस्पर अवगाहलक्षण संबंधस्वरूप बंध सिद्ध होता है । वही बंध अनेक वस्तुका एकरूप हो संतानपनेकर इतरेतराश्रय दोषरहित है । वही बंध कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका निमित्त जो अज्ञान उसका निमित्तकारण है ॥ भावार्थ-यह आत्मा जैसे अपने ज्ञानस्वभावरूप परिणमता है उसीतरह क्रोधादिरूप भी परिणमता है ज्ञानमें और क्रोधादिकमें जबतक भेद नहीं जानता तबतक इसके कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है क्रोधादिरूप परिणमता आप तो कर्ता है और वे क्रोधादिक इसके कर्म हैं । अनादि अज्ञानसे कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है और कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे बंध है तथा उसकी संतानसे अज्ञान है । इसतरह अनादि संतान है । इसप्रकार इसमें इतरेतराश्रय दोष भी नहीं है । ऐसे जबतक आत्मा
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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