SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८९ समयसारः । यथैष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्कामतीत्येकस्य पंचयोजनान्यभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्यवहारिणां बलसमुदाये राजेति व्यवहारः। परमार्थतस्त्वेक एव राजा। तथैष जीवः समग्रं रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तित इत्येकस्य समग्रं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्व्यवहारिणामध्यवसानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः । परमार्थतस्त्वेक एव जीवः ॥४७॥४८॥ यद्येवं तर्हि किं लक्षणोसावेकष्टंकोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह; अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ॥४९॥ ववहारेण दु उच्चदि तत्थेको णिग्गदो राया बलसमूहं दृष्टांतः । पंच योजनानि व्याप्य राजा निर्गतः इति व्यवहारेणोच्यते । निश्चयनयेन तु तत्रैको राजा निर्गत इति दृष्टांतो गतः । इदानीं दार्टीतमाह-एमेव य ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं एवमेव राजदृष्टांतप्रकारेणैव व्यवहारः । केषां । अध्यवसानादीनां जीवाद्भिन्नभावादीनां रागादिपर्यायाणां जीवो त्ति कदो मुत्ते कथंभूतो व्यवहारः । रागादयो भावाः व्यवहारेण जीव इति कृतं भणितं सूत्रे परमागमे तत्थेको णिच्छिदो जीवो तत्र तेषु रागादिपरिणामेषु मध्ये निश्चितो ज्ञातव्यः । कोसौ। जीवः । कथंभूतः । शुद्धनिश्चयनयेनैको भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितशुद्धबुद्धैकखभावो जीवपदार्थः । इति व्यवहारनयसमर्थनरूपेण गाथात्रयं गतं ॥४७॥४८॥ एवमजीवाधिकारमध्ये शुद्धनिश्चयनयेन देहरागादिपरद्रव्यं जीवस्वरूपं न भवतीति कथनमुख्यतया गाथादशकेन निश्चयकर [ बलसमुदयस्य ] सेनाके समूहको [ इत्येष आदेशः] ऐसा कहना है । वह [ व्यवहारेण तु उच्यते ] व्यवहार नयसे है कि यह राजा निकला [ तत्र ] उस सेनामें तो वास्तव में [ एकः ] एक [राजा निर्गतः] ही राजा निकला है [एवमेव च ] इसीतरह [ अध्यवसानाद्यन्यभावानां] इन अध्यवसान आदि अन्य भावोंको [ सूत्रे ] परमागममें [ जीव इति ] ये जीव हैं ऐसा [व्यवहारः कृतः] व्यवहार नयसे कहा है [ तत्र निश्चितः ] निश्चयसे विचारा जाय तो उन भावोंमें [ जीवः एकः ] जीव तो एक ही है। टीका-जैसे ऐसा कहते हैं कि यह राजा पांच योजनके फैलावसे निकल रहा है वहां निश्चयकर विचारा जाय तो एक राजाको पांच योजनमें व्यापना असंभव है तो भी व्यवहारी जनोंका सेनाके समुदायमें राजा कहनेका व्यवहार है । परमार्थसे तो राजा एक ही है सेना राजा नहीं। उसीतरह यह जीव सब रागके स्थानोंको व्यापकर प्रवर्त रहा है परंतु निश्चयकर विचारा जाय तो एकका समस्त रागके ठिकानोंमें फैलावसे रहना असंभव है तो भी व्यवहारी लोकोंका अध्यवसानादिक अन्य भावों में ये जीव हैं ऐसा व्यवहार प्रवर्तता है परमार्थसे . तो जीव एक ही है अध्यवसान आदि भाव जीव नहीं हैं ॥ ४७ । ४८॥ आगे शिष्य पूछता है कि ये अध्यवसानादिक भाव हैं वे जीव नहीं है तो एक . १२ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy