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________________ ४८ मूलम्:- धर्मिधर्मादीनामे (मै) कान्तिकपार्थक्याभिसन्धि नैगमामासः, यथा नैयायिक- वैशेषिकदर्शनम् । अर्थः- धर्मी और धर्म आदि के भेद का एकान्त रूप से प्रतिपादन करनेवाला अभिप्राय नैगमाभास है । जिस प्रकार नैयायिक और वैशेषिक का दर्शन । --- विवेचनाः-- आत्मा में सत्त्व और चैतन्य दो धर्म है। आत्मा के साथ इन दोनों का अभेद है इसलिए इन दोनों धर्मो का भी परस्पर कथंचित् अभेद है । जो इन दोनों को सर्वथा भिन्न कहता है वह प्रमाण से विरुद्ध होने के कारण नैगमाभास है । न्याय और वैशेषिक के अनुसार धर्म और धर्मी आदिमें अत्यंत भेद है । उनके अनुसार अवयव और अवयत्री का, गुण और गुणी का, क्रिया और क्रियावत् का, जाति और व्यक्तिका अत्यंत भेद है । परन्तु यह मत प्रमाणों से विरुद्ध है । गौ और अश्व में जिस प्रकार भेद है। इस प्रकार बट और कपाल आदि अवयव और अवयत्री में, घट और उसके रूप आदि गुण और गुणी में, भेद का अनुभव नहीं होता । इन सबमें परस्पर भेद और अभेद है । मूलम्:- सत्ताऽद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान्निराचक्षाणः संग्रहामासः, यथाऽखिलान्यद्वैत बादिदर्शनानि सांख्यदर्शनं च । अर्थ: - केवल सत्ता को स्वीकार करने वाला और समस्त विशेषका निषेध करनेवाला संग्रहाभास है जिस प्रकार समस्त अद्वैतवादी दर्शन और सांख्य दर्शन । विवेचनाः- केवल सत्त्व है, विशेषोंकी सत्ता वास्तव में नहीं है इस प्रकार का मत जो मानते हैं वे अद्वैतवादी हैं ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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