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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका। [ ८१ चारित्रमोहनीय ही रतिका कारण हैतदर्थेषु रतो जीवश्चारित्रावरणोदयात् । तद्विना सर्वतः शुद्धो वीतरागोस्त्यतीन्द्रियः ॥ २६८॥ अर्थ—इष्ट पदार्थों में यह जीव चारित्रमोहनीयके उदयसे ही रत होता है, उस चारित्रमोहनीयके विना सर्वदा शुद्ध है, वीतराग है और अतीन्द्रिय है। भावार्थ-चारित्रमोहनीयके दूर होनेसे पहले ही पदार्थों में राग भाव है, इन्द्रिय जन्य पदार्थोकी लालसा है, और उससे होनेवाली मलिनता भी है। सम्बग्दृष्टी इसी चारित्रमोहनीयसे बाध्य होकर विषयोंमें फंस जाता है। भोगोंमें प्रवृत्तिका कारण चारित्रमोहनीय हैदृङ्मोहस्य क्षतेस्तस्य नूनं भोगाननिच्छितः। • हेतुसद्भवतोऽवश्यमुपभोगक्रिया बलात् ॥ २६९ ।। __ अर्थ-सम्यग्दृष्टीका दर्शनमोहनीय कर्मके नाश होनेसे भागोंकी इच्छा नियमसे नहीं होती वह भागोंका नहीं चाहता, परन्तु हेतुकी सत्तासे अवश्य ही प्रेरित होकर उसे उपभोग क्रिया करनी पड़ती है । हेतु, वही चारित्र मोहनीय है। फिर भी सम्यग्दृष्टी वीतरागी हैनासिद्धं तद्विरागत्वं क्रियामात्रस्य दर्शनात् । जगतोनिच्छितोप्यास्त दारिद्य मरणादि च ॥ २७० ॥ अर्थ-यद्यपि सम्यग्दृष्टी उपभोग क्रिया करता है अर्थात् भोग, उपभोगका सेवन करता है, तथापि वह वीतराग है। क्योंकि उसके भोगापभोगकी क्रिया मात्र देखी जाती है, चाहना नहीं है, और चाहना नहीं होनेपर भी उसे ऐसा करना पडता है । संसारमें कोई नहीं चाहता कि मेरे पास दरिद्रता आजाय, अथवा मेरी मृत्यु होजाय । ऐसा न चाहनेपर भी पापके उदयसे दारिद्य आता ही है और आयुकी क्षीणतासे मृत्यु होती ही है। उसी प्रकार चारित्रमोहनीयके उदयसे सम्यग्दृष्टिका सांसारिक वासनाओंकी इच्छा न होने पर भी उन्हें राग बुद्धिके लिये बाध्य होना पड़ता है। * * सूरिकल्प आशाधरने भी सागारधर्मामृतमें कहा है भूरेरवादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाशया, हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलबरेणैवात्मनिन्दादिमान् शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोप्यधैः ॥ १ ॥ अर्थात्-जैसे कोतवाल द्वारा पकड़ा हुआ चोर जानता है कि काला मुंह करना, गधेपर चढ़ना आदि निन्ध काम है, तथापि कोतवालकी आज्ञानुसार उसे सब काम करने पड़ते हैं । इसी प्रकार सम्यग्दृष्ठी पुरुष जानता है कि त्रस स्थावर जीवोंको दुःख पहुंचाना, इन्द्रियों के सुख सेवन करना निन्द्य और उ० ११
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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