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________________ ७२ ] पञ्चाध्यायी। . [दूसरा ManranAmar ..... भावार्थ-सम्यग्दृष्टी और मिथ्यादृष्टीकी क्रिया बड़ा भारी अन्तर है । मिथ्यादृष्टी की निशानो बन्धका कारण है और सम्यग्दृष्टीकी क्रिया, बन्धका कारण तो दूर रहो, उलटी पूर्व बंधे हुए कर्मोकी निर्जराका कारण है। ___ऐसा होने हेतुयस्माज्ञानमया भाचा ज्ञानिनां ज्ञाननिताः। अज्ञानमयभावामनावकाशः सुदृष्टिसु ॥२३१॥ अर्थ-सम्यक्तानियोंके ज्ञामसे होनेवाले ज्ञानस्वरूप भाव ही सदा होते हैं तथा सम्यग्दृष्टियोंमें अज्ञानसे होनेवाले अज्ञानमय भावोंका स्थान नहीं है। भावार्थ-बन्धके कारण अज्ञानमय भाव हैं । वे सम्यग्दृष्टियोंके होते नहीं है, इसलिये सम्यम्बष्टीकी क्रिया बन्नका हेतु नहीं है किन्तु शुद्ध ज्ञानकी मात्रा होनेसे निर्जराका शानीका चिह्नपैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभवः स्वयम् । तव्यं ज्ञानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्तः स एव च ॥ २३२ ॥ अर्थ--सम्यग्ज्ञानी, वैराग्य परम उदासीनतारूप ज्ञान तथा अपनी आत्माका अनुभव स्वयं करता रहता है। वैराग्य परम उदासीनता और स्वानुभव ये ही दो चिन्ह सम्यग्ज्ञानीके हैं और वही ज्ञामी नियमसे जीवन्मुक्त है। ज्ञानीका स्वरूपज्ञानी ज्ञानेकपात्रत्वात् पश्यत्यात्मानमात्मवित् । बडस्पृष्टादिभावानामस्वरूपादनास्पदम् ।। २३३ ।। अर्थ-ज्ञानी, ज्ञानका ही अद्वितीयपात्र है। वही आत्माको जाननेवाला है, इसलिये अपनी आत्माको देखता है । वही ज्ञानी, कर्मोसे बँधनेका तथा अन्य पदार्थोसे मिलनेका स्थान नहीं है । क्योंकि कर्मोंसे बँधना और मिलना आदि भाव उसके स्वरूप नहीं है। . . और भीततः स्वादु यमाभ्यक्षं स्वमासादयति स्फुटम् । अविशिष्मसंयुक्त निवलं स्वममन्यकम् ॥ २३४ ॥ अर्थ-सम्यादृष्टी पुरुष जैसा अपने आपको प्रत्यक्ष पाता है उसी प्रकारका स्वाद भी मर्थात जैसा ही अनुमब करता है। वह अपनेको सदा सबसे अमिल, असम्बन्धित
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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