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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका. vvvVVVVVVVVP namaAnnawwwwwwwhey ___ अर्थ तुम्हारा कहना ठीक है। आत्माके प्रत्यक्ष न होनेमें मूल कारण आत्मीय ज्ञाना वरण कर्मका उदय ही है। परन्तु साथ ही दूपरे कर्मका उदय भी उस प्रत्यक्षको रोक रहा है। एक गुणके घात करनेके लिये कर्मान्तर (दूसरे कर्म ) के उदयकी अपेक्षा असिद्ध नहीं किन्तु कार्यकारी ही है। विशेष खुलासाअस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्त्युदयक्षतः । तथा वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽनुदद्यादपि ॥ २०२॥ अर्थ--मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि जितने भी ज्ञान हैं, वे सभी अपने २ ज्ञामावरणीय कर्मके उदयका क्षय होनेसे होते हैं। साधमें वीर्यान्तराय कर्मका अनुल्य भी आवश्यक है। भावार्थ-हरएक शक्तिके काम करने में बलकी आवश्यकता है। इसलिये झान भी जिसप्रकार अपना कार्य करनेके लिये अपने आवरणका नाश चाहता है, उसी प्रकार प्राप्तिके लिये वीर्यान्तराय कर्मका भी नाश चाहता है। आत्मोपलब्धि हेतुमत्याच्यावरणस्योच्चैः कर्मणोऽनुदवायथा। दृछमोहस्योदयाभावादारमशुद्धोपलब्धिः स्यात् ॥२०॥ अर्थ-बिस प्रकार आत्मोपलब्धि (आत्म प्रत्यक्ष) मतिज्ञानावरणी और वीर्यान्तराष कर्मके अनुदयसे होती है, उसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्मके भी अनुदयसे होती है। भावार्थ-जिस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञानको ज्ञानावरण कर्म रोकता है, उसी प्रकार शुद्धताको दर्शनमोहनीय कर्म रोकता है । इसलिये शुद्ध-उपलब्धिके लिये ज्ञानावरण, वीर्यान्तराय और दर्शनमोल्लीय, इन तीनों कोंके अभावकी आवश्यकता है । विना इन तीनोंके अनुदय हुर शुद्धाममा अमुभवन कभी नहीं हो सक्ता। किशोपलब्धिशब्दोपि स्यादनेकार्थवाचकः। शुद्धोयलब्धिरित्युक्ता स्वादशुद्धत्वहानये ॥२०४॥ अर्थ-उपलब्धि शब्द भी अनेकार्थ वाचक है । यहां पर उपलब्धि शब्दका प्रयोजन शुद्धोपलब्धिसे है और वह अशुद्धताको दूर करनेके लिये है। - आपकोपलाधिका स्वामी- अस्तपशुहोपलाधिन तथा मिथ्याशां परम् । . सुरशां मौणरूपेश स्थान स्थान काचन ॥२०५॥ अर्थ-अशुद्धोमध बल मिच्याइष्टियोंके ही होती है । सम्याष्टियोंके नहीं होती, यदि कदाचित हो भी तो गौण रूपसे होती है ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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