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________________ (७) प्रेरित किया, उन्हींकी प्रेरणाके प्रतिफलमें आज हम इस महान् ग्रन्थकी हिन्दी-सुबोधिनी टीका बनाकर पाठकोंके समक्ष रखने में समर्थ हुए हैं। इसके लिये हम माननीय ब्रह्मचारीजीके अति कृतज्ञ हैं, और इस कृतज्ञताके उपलक्ष्यमें आपको कोटिशः धन्यवाद देते हैं। साथ ही मित्रवर पं० उमरावसिंहजी न्यायतीर्थ प्रधानाध्यापक दि० जैन महाविद्यालय मथुराको भी हम धन्यवाद दिये बिना न रहेंगे, आपसे जब कभी हमने पत्रद्वारा कुछ शङ्काओंका समाधान चाहा तभी आपने स्वबुद्धि कौशलसे तत्काल ही उत्तर देकर हमें अनुगृहीत किया । इस टीकाका संशोधन विद्वद्वर श्रीमान् पं० लालारामजी शास्त्रीने किया है, आप हमारे पूज्यवर सहोदर हैं तथा विद्यागुरु भी हैं। इसलिये हम आपको सविनय प्रणामाअलि समर्पित करते हैं। इस अनुवादफे लिखने में हमको किसी ग्रन्थ विशेषकी सहायता नहीं मिली, कारण कि मूल ग्रन्थके सिवा इस ग्रन्थकी कोई संस्कृत अथवा हिन्दी टीका अभी तक हमारे देखने सुननेमें नहीं आई है, अतः हम नहीं कह सकते कि हमारा प्रयत्न कहां तक सफल हुआ होगा, विद्वद्वर्ग इसका स्वयं अनुभव कर सकेंगे। तत्त्वविवेचन तथा अध्यात्म सम्बन्धी ग्रन्थों के अनुवादमें पदार्थकी अपेक्षा भावार्थकी मुख्यता रखना विशेष उपयोगी होता है, ऐसा समझ कर हमने इस टीकामें पद २ का अर्थ न लिखकर अर्थमें पूरे श्लोकका मिश्रित अर्थ लिखा है और भावार्थमें उसी विषयको विस्तारसे लिखा है। यद्यपि भावार्थ सर्वत्र ग्रन्थानुसार ही लिखा गया है, परन्तु कहीं २ पर उसी विषयको विशेष स्फुट करनेके लिये ग्रन्थसे बाहरकी युक्तियां भी लिखी गई हैं तथा अष्टसहस्त्री, गोम्मट्टसारादि ग्रन्थोंके आशयोंका भी जहां कहीं टिप्पणीमें उल्लेख किया गया है जो श्लोक सरल समझे गये हैं, उनका अर्थ मात्र लिखा गया है । हमने सर्व साधरणके समझने योग्य भाषामें इस टीकाके लिखनेका भरसक प्रयत्न किया है । संभव है विषयकी कठिनताके कारण हम कहीं २ अपने इस उद्देश्यसे च्युत हुए हों, तथा भावज्ञानसे भी स्खलित हुए हों, इसके लिये हमारा प्रथम प्रयास समझ कर सज्जनविद्वज्जन हमें क्षमा प्रदान करनेमें थोड़ा भी संकोच नहीं करेंगे ऐसी पूर्ण आशा है । गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ॥ २४-६-१९१८ । निवेदकश्री ऋषम ब्रह्मचर्याश्रम चावली ( आगरा) निवासी, हस्तिनापुर (मेरठ) मक्खनलाल शास्त्री। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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