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________________ ५४ ] पञ्चाध्यायी । [ दूसरी I आत्माका शुद्धरूप ढक गया है । तो भी उपाधि रहित अवस्थाका ध्यान करनेसे अशुद्धताके भीतर भी शुद्धात्माका अवलोकन होता ही है । दृष्टान्तमाला सन्त्यनेकेत्र दृष्टान्ता हेमपद्मजलाऽनलाः । आदर्शस्फटिकाश्मानौ बोधवारिधिसैन्धवाः ॥ १५७ ॥ अर्थ - अशुद्धताके भीतर शुद्धताका ज्ञान होता है इस विषयमें अनेक उदाहरण हैं । उनमें से कितने ही दृष्टान्त तो ये हैं-सोना, कमल, जल, अग्नि, दर्पण, स्कटिक पत्थर, ज्ञान, समुद्र और नमक ( लवण ) 1 सोनेका दृष्टान्त एक हेम यथानेकवर्ण स्यात्परयोगतः । तमसन्तमिवोपेक्ष्य पश्य तडेम केवलम् ॥ १५८ ॥ अर्थ - यद्यपि सोना दूसरे पदार्थ के निमित्तसे अनेक रूपोंको धारण करता है । जैसे कभी चांदीमें मिला दिया जाता है तो दूसरे ही रूपको धारण करता है, कभी पीतल में मिला दिया जाय तो दूसरे ही रूपको धारण करता है इसी प्रकार तावाँ, लोहा, अलमोनियम, रेडियम आदि पदार्थोंके सम्बन्धसे अनेक प्रकार दीखता है, तथापि उन पदार्थोंको नहीं सा समझ कर उनकी उपेक्षा कर दें तो केवल सोनेका स्वरूप ही दृष्टिगत होगा । भावार्थ- दूसरे पदार्थोंके मेलसे अनेक रूपमें परिणत होनेवाले भी सोनेमें अन्य पड़ा'थका ध्यान छोड़कर केवल सोनेका स्वरूप चितवन करनेसे पीतल आदिकसे भिन्न पीतादि गुण विशिष्ट सोनेमात्रका ही प्रतिभास होता है । शङ्का नचाशंक्यं सतस्तस्य स्यादुपेक्षा कथं जवात् । सिद्धं कुतः प्रमाणाद्वा तत्सत्त्वं न कुतोपिवा ॥ १५९ ॥ अर्थ — केवल सोनेके ग्रहण करनेमें दूसरे मिले हुए पदार्थकी शीघ्र ही कैसे उपेक्षा की जा सकती है ? अथवा उस सोनेमें दूसरे पदार्थकी सत्ता है या नहीं है ? है तो किस प्रमाणसे है ? अथवा किसी भी प्रमाणसे नहीं है ? इस प्रकारकी शंका करना ठीक नहीं है । क्यों ठीक नहीं है ? सो नीचे बतलाते हैं- परिहार नानादेयं हि तडेम सोपरक्तेरुपाधियत् । तत्त्यागे सर्वशून्यादिदोषाणां सन्निपाततः ॥ १६० ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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