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________________ - अध्याय ।। सुबोधिनी टीका। हो, ऐसा होना तो असंभव ही है, और न उपर्युक्त कथमका ऐसा आशय ही है, उपयुक्त कथनका आशय यही है कि सगडेव जी और पुद्गल दोनोंकी वैभाषिक अवस्था है। जिस समय रागद्वेष जीवका वैभाषिक भाव कहा जाता है उस समय उक्त कथनमें जीवांस ही विवक्षित होता है, अर्थात् जीवके अंशोंकी अपेक्षासे रागद्वेषको जीपका ही भाव कह दिया जाता है । इसी प्रकार पुद्गलके अंशोंकी अपेक्षासे रागद्वेष काँका भी कहा जाता है, और इसलिये उसका सिद्धोंमें निषेध बतलाया जाता है, यदि रागद्वेष भाव जीवका ही होता तो सिखों में भी उसका होना अनिवार्य होता । यदि यह कहा जाय कि पुतुलके निमित्तसे जीवका रागद्वेष भाव है तो यहांपर निमित्त कारपाका ही विचार कर लेना चाहिये । निमित्तता: दो प्रकारसे आती है, एक तो मूल पदार्थमें अपने गुण दोष न लाकर केका सलामकानसे आती है। जैसे-चकलम वेलनके निमित्तसे आटेकी रोटी बनना । रोटीमें काला वेलसका निखित अवश्य है परन्तु चकला वेलनके गुण रोममें नहीं आते हैं, केवल उनके निमित्तले आटेमें एक आकार रसे दूसरा आक्रार हो जाता है। दूससी निमितता अपने उपकृत पदार्ममें अपने युग कोसे आती है। जैको-आठेमें नमक । नमकके निमित्तसे रोमेका स्वाद ही काल जाता है। राम में पहले प्रकारकी मिमित्तता तो कही नहीं जा सकी, क्योंकि वह तो गुणः च्युतिम कारण ही नहीं पड़ती है, इसलिये दूसरी ही माननी पड़ेगी, दूसरी निमितता स्वीकार करनेने उक कथनमें विरोध भी नहीं आता है। रामद्वेषमें आटे और नाकका दृष्टान्त केवलः घनिष्ठ सम्बनको ही घटित करना चाहिये विपरीत स्वादुके लिये कडुवी तूंबी और दूधका अनन्त ठीक है कडुवी तूंबीके अंश मिलनेसे ही दूक विपरीत स्वादु होता है। अदला कधका कार्य भी है और कारण भी हैबन्धहेलुराबल्वं हेतुबमोति निर्णय । यस्माइन्धं विना न स्यादशुद्धत्वं कदाचन ॥ १३१ ॥ अर्थ-अन्धका कारण अशुद्धता है, और क्न्धका कार्य भी है, क्योंकि को मिला अशुद्धता कभी नहीं होती। इस. श्लोकमें कब्धको कारमता ही मुख्य रीतिसे बतलाई है । नीचे के जनेक द्वारा बन्धकी कार्यता बतलाते हैं कार्यरूपः स बन्धोस्ति कर्मण पाकसंभवात् । __ हेतुरूपमशुहत्य समयावयता १३२ ॥ . अर्थ-य कार्य रूपा भी है। क्योंकि कोको बिशाक होनेसे होता है। अशुद्धता उसका कारण है । आलुद्धताके द्वारा ही नवीनः २ कर्म खिंयकर आता है और जिद बन्धको प्राप्त होता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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