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________________ अध्याय । ] सुबोधिनीटीका। ही मानी जावे, शुद्धता नहीं मानी जावे, तो सदा बन्ध ही रहेगा, अबन्ध कभी होगा ही नहीं । ऐसी अवस्थामें सभी आत्मायें बद्ध ही रहेंगी। मुक्त कोई भी कभी न होगा । इस लिये शुद्धता भी माननी ही पड़ती है । सारांश-शुद्धता और अशुद्धता दोनों ही ठीक हैं । पहले आत्मा अशुद्ध रहता है। फिर तप आदि कारणों द्वारा कर्मोको निर्जरा करने पर शुद्ध हो जाता है। इसी बातको नीचेके श्लोकसे बतलाते हैं माभूदा सर्वतो बन्धः स्यादबन्धप्रसिद्धितः। नाबन्धः सर्वतः श्रेयान् बन्धकार्योपलब्धितः ॥ १२४॥ अर्थ-न तो सब आत्माओंके सदा बन्ध ही रहता है, क्योंकि अबन्धकी भी प्रसिद्धि है अर्थात् मुक्त जीव भी प्रसिद्ध है, तथा न सर्वथा सदा अबन्ध ही मानना ठीक है क्योंकि बन्ध रूप कार्य अथवा बन्धका कार्य भी पाया जाता है। अबद्धका दृष्टान्त-- अस्तिचित्सार्थसर्वार्थसाक्षात्कार्यविकारभुक् । अक्षयि क्षायिकं साक्षादबद्धं बन्धव्यत्ययात् ॥ १२५ ॥ अर्थ--सम्पूर्ण पदार्थीका साक्षात् (प्रत्यक्ष ) करनेवाला, सदा अविनश्वर, ऐसा जो क्षायिक ज्ञान-केवल ज्ञान है वह निर्विकार है, शुद्ध है, तथा बन्धका नाश होनेसे अबद्ध अर्थात् मुक्त है। बद्धका दृष्टान्तबद्धः सर्वोपि संसारकार्यत्वे वैपरीत्यतः । सिद्धं सोपाधि तद्धेतोरन्यथानुपपत्तितः ॥ १२६ ॥ अर्थ-संसारी जीवोंका ज्ञान बद्ध है, क्योंकि उसके कार्यमें विपरीतता पाई जाती है, इसलिये ज्ञान उपाधि सहित भी होता है यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है। उपाधि पदसे यहां कर्मोपाधिका ग्रहण करना चाहिये । यदि संसारियोंके ज्ञानको सोपाधि न माना जावे तो उसमें विपरीतता रूप हेतु नहीं बन सकता। --- फलितार्थसिद्धमेतावता ज्ञानं सोपाधि निरुपाधि च। - तत्राशुद्धं हि सोपाधि शुद्ध तन्निरुपाधि यत् ॥ १२७॥ अर्थ-उपर्युक्त कथनसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि ज्ञान दो प्रकारका है एक तो उपाधि सहित है और दूसरा उपाधि रहित है। कर्मोपाधि सहित ज्ञान अशुद्ध है। कर्मोपाधिसे रहित शुद्ध है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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