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________________ ४० ] पञ्चाध्यायी । [ दूसरा अपने प्रतिबिम्बमें कारण स्वयं चक्षु है, प्रतिबिम्ब कार्य है । परन्तु वही चक्षुके आकारको धारण करनेवाला चक्षुका प्रतिबिम्ब अपने दिखाने में कारण भी है। भावार्थ – जब चक्षुसे दर्पण देखते हैं तब चक्षुका आकार दर्पणमें पड़ता है। इसलिये तो वह आकार चक्षुका कार्य हुआ, क्योंकि चक्षुसे पैदा हुआ है । परन्तु उसी आकारको जब से देखते हैं तब अपने दिखानेमें वह आकार कारण भी होता है । इसलिये एकही पदार्थ में कार्य कारण भावभी उपर्युक्त दृष्टान्त द्वारा सुघटित हो जाता है । अपि चाचेतनं मूर्त पौङ्गलं कर्म तद्यथा । * .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... ॥ १०८ ॥ जीवभावविकारस्य हेतुः स्याद्द्रव्य कर्म तत् । तस्तद्विकारश्च यथा प्रत्युपकारकः ॥ १०९ ॥ अर्थ — अचेतन, पौद्गलिक, मूर्त द्रव्य कर्म तो जीवके भावोंके विकारका कारण है । और उस द्रव्य कर्मका कारण वह वैभाविक भाव है । यह परस्पर कारणपना इसी प्रकार है कि मानों एक दूसरेके उपकारका परस्पर बदला ही चुकाते हों । इन दोनों में क्यों कारणता हुई ? चिद्विकाराकृतिस्तस्य भावो वैभाविकः स्मृतः । तन्निमित्तात्पृथग्भूतोप्यर्थः स्यात्तन्निमित्तकः ॥ ११० ॥ अर्थ — जीवकी शुद्ध अवस्थासे बिगड़कर जो विकार अवस्था है वही जीवका वैभा विक भाव है उसी वैभाविक भावके निमित्तसे जीवसे सर्वथा भिन्न भी पुद्गल द्रव्य उस वैभाविक भाव के लिये निमित्त कारण होता है । भावार्थ-यद्यपि पुद्गलकार्माण द्रव्य जीवसे सर्वथा भिन्न जड़ पदार्थ है, परन्तु जीवके अशुद्ध भावसे वह खिंचकर कर्मरूप हो जाता है । फिर वही जड़कर्म चेतनके भावोंके बिगा - कारण होता है । इसमें परस्परकी निमित्तता ही कारण है । ऐसा होने में भी उभयबन्ध ही कारण हैतद्धि नोभयबन्धाद्वै वहिर्बश्चिदपि । न हेतवो भवन्त्येकक्षेत्रस्याप्यबडवत् ॥ १११ ॥ अर्थ - वह कर्म चेतन भावोंके बिगाड़नेका कारण हो जाता है इसमें भी उभयबन्ध ही कारण है । क्योंकि जब तक वह पुद्गल द्रव्य कर्मरूप परिणत न होगा तब तक वह आत्माके भावको विकारी बनाने में कारण नहीं हो सकता है। यदि विना कर्मरूप अवस्थाको धारण किये ही पुद्गल द्रव्य जीवके बिकार भावोंका कारण हो जाय तो जीवके साथ ही उसी क्षेत्रमें चिरकालसे लगे हुए विस्रसोपचय भी कारण हो जायगे, परन्तु विस्त्रसोपत्रय विकार में कारण * मूल पुस्तकमें भी इस श्लोक के दो चरण नहीं मिले ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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