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________________ PURN अध्यास । सुबोधिनी टीका। [ ३५. समय उस वैभाविकी शक्तिका परिणमन स्वभावरूप होता है । इस प्रकार केवल एक बैभाविक शक्तिके ही स्वाभाविक और वैभाविक ऐसे दो अवस्था भेद हैं । निष्कर्ष-- ततः सिद्धं सतोऽवश्यं न्यायाच्छक्तिमयं यतः। सदवस्थाभेदतो छैतं न बैतं युगपत्तयोः ॥ ९१ ॥ अर्थ-उपर्युक्त कथनसे यह बात भली भांति सिद्ध हो जाती है कि पदार्थमें अवस्थाके भेदसे दो शक्तियां हैं । यह द्वैत अवस्था भेदसे ही है, स्वाभाविक और वैभाविक इन दो शक्तियोंकी अर्पक्षासे युगपत् द्वैत नहीं है। भावार्थ-वस्तुमें एक समयमें एकही पर्याय होती है इस नियमसे वैभाविक शक्तिकी क्रमसे होनेवाली दोनों अवस्थायें वस्तुमें रहती हैं। परन्तु कोई कहे कि स्वाभाविक और वैभाविक दोनों एक साथ रह जाय यह कभी नहीं हो सकता । क्योंकि यदि एक साथ एक कालमें दोनों रह जाय तो वे दो गुण कहे जायगे, पर्यायें नहीं कही जायगी । पर्याय तो एक समयमें एक ही होती है । इसलिये अवस्थाभेदसे क्रमसे ही स्वाभाविक और वैभाविक दोनों अवस्थायें पायी जाती हैं। एक कालमें नहीं। दोनोंको एक समयमें माननेसे दोषयोगपद्ये महान् दोषस्तद्वतस्य नयादपि । कार्यकारणलोाशो नाशः स्याद्वन्धमोक्षयोः ॥ ९२ ॥ अर्थ-यद्यपि वैभाविक शक्ति एक ही है और उसकी दो अवस्थायें कमसे होती हैं यह सिद्धान्त है । तथापि अवस्था भेदसे जो द्वैत है अर्थात् पर्यायकी अपेक्षासे जो स्वाभाविक और वैभाविक दो भेद हैं इन भेदोंको एक साथ ही कोई स्वीकार करे तो भी ठीक नहीं है। ऐसा माननेसे अनेक दोष आते हैं । एक तो कार्य कारण भाव इनमें नहीं रहेगा क्योंकि वैभाविक अवस्था पूर्वक ही स्वाभाविक अवस्था होती है । जिस प्रकार संसार पूर्वक ही मोक्ष होती है। इस लिये संसार मोक्ष प्राप्तिमें कारण है। इसी प्रकार वैभाविक अवस्थाके बिना स्वाभाविक अवस्था भी नहीं हो सक्ती है। एक साथ माननेमें यह कार्यकारणभाव नहीं बनेगा । दूसरे बन्ध और मोक्षकी भी व्यवस्था नहीं बनेगी, क्योंकि वैभाविक अवस्थाको पहले माननेसे तो बन्धपूर्वक मोक्षका होना सिद्ध होता है। परन्तु एक साथ दोनों अवस्थाओंकी सत्ता स्वीकार करनेसे बन्ध और मोक्ष एक साथ ही प्राप्त होंगी। अथवा बन्धकी सत्ता होते हुए मोक्ष कभी हो नहीं सक्ती, ..इसलिये इस आत्माकी कभी भी मोक्ष नहीं होगी । इसी बातको नीचे भी दिखाते हैं
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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