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________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका। [ २९ मानता है परन्तु उन पदार्थों में किसी प्रकारकी रुचि अथवा अरुचिका उत्पादक नहीं हो सक्ता है। क्योंकि रुचि अथवा अरुचिका होना मोहनीयके निमित्तसे है वहां पर मोहनीयका सर्वथा अभाव हो चुका है इससे भली भांति सिद्ध होता है कि जो मोहनीय कर्मसे सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान है वही बद्ध है और उससे रहित अबद्ध है। निष्कर्षततः सिद्धः सुदृष्टान्तो मूर्त ज्ञानवयं यथा । अस्त्यमूर्तोपि जीवात्मा बडः स्यान्मूर्तकर्मभिः ॥ ७० ॥ अर्थ-इस लिये इतने कथनसे तथा मदिराके ज्वलन्त उदाहरणसे यह बात भले प्रकार सिद्ध हो गई कि जिस प्रकार मतिज्ञान और श्रुत ज्ञान अमूर्त होने पर भी मूर्त हो जाते हैं । उसी प्रकार अमूर्त भी जीवात्मा मूर्तिमान् कर्मोसे बँध जाता है अर्थात् मूर्त कके निमित्तसे अंमूर्त आत्मा भी कथंचित् मूर्त हो जाता है। प्रश्नननु बहत्वं किं नाम किमशुद्धत्वमर्थतः। वावदूकोथ संदिग्धो बोध्यः कश्चिदिति क्रमात् ॥ ७१॥ अर्थ-ऊपर कहा गया है कि जीव कर्मोसे बँधा हुआ है। यहां पर यह बतलाइये कि वद्धता क्या वस्तु है ? तथा अशुद्धता भी वास्तवमें क्या वस्तु है ? जिस किसी अधिक बोलनेवालेको इस विषयमें संदेह है उसके संदेहको दूर कर उसे यथार्थ बोध करा दीजिये ? बन्धका स्वरूपअर्थाद्वैभाविकी शक्तिर्या सा चेदुपयोगिनी। तद्गुणाकारसंक्रातिबन्धः स्यादन्यहेतुकः ॥ ७२ ॥ अर्थ-आत्मामें अन्य गुणोंकी तरह एक वैभाविक नामा शक्ति भी है । वह शक्ति जब उपयुक्त अवस्थामें आती है तव आत्माके गुणोंकी संक्रान्ति (च्युत) होती है । गुणोंका अपने स्वरूपसे च्युत होना ही बन्ध कहलाता है और वह बन्ध दूसरेके कारणसे होता है। भावार्थ-रागद्वेषके निमित्तसे वैभाविक शक्तिका परिणमन विभावरूप होता है । जो वैभाविक शक्तिका विभावरूप परिणमन है वही परिणमन वैभाविक शक्तिकी उपयोगी व्यवस्था है । उसी अवस्थामें आत्मा अपने स्वरूपसे गिर जाता है वही बन्धका यथार्थ स्वरूप है। इसी बातको नीचे स्पष्ट किया जाता है तत्र अन्धे न हेतुः स्याच्छक्ति वैभाविकी परम् । नोपयोगोपि तत्किन्तु परायत्तं प्रयोजकम् ॥ ७३ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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