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________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका। भावार्थ-इस श्लोकसे शंकाकारने वैभाविक शक्तिको अनुपयोगी समझकर उड़ा ही दिया है । वह कहता है कि वैभाविक उसे ही कहते हैं कि जो पर निमित्तसे हो, ज्ञान भी ज्ञेय पदार्थके निमित्तसे उस ज्ञेयके आकारको धारण करता है, परन्तु ज्ञेयाकारको धारण करनेवाला ज्ञान वैभाविक किसी प्रकार नहीं कहा जा सकता है ? इसी शंकाको नीचेके श्लोकसे स्पष्ट करते हैंतस्माद्यथा घटाकृत्या घटज्ञानं न तदघटः। मद्याकृत्या तथाज्ञानं ज्ञानं ज्ञानं न तन्मयम् ॥ ६५ ॥ अर्थ-शंकाकार कहता है कि जिस समय ज्ञेयके निमित्तसे ज्ञान ज्ञेयाकार हो जाता है, उस समय ज्ञान ज्ञान ही रहता है, वह ज्ञेय नहीं हो जाता । दृष्टान्तके लिये घटज्ञानको ले लीजिये । जिस समय ज्ञान घटाकार होता है उस समय घटज्ञान ज्ञान ही तो है, वह घट ज्ञाम घट नहीं बन जाता । इसी प्रकार मदिराके निमित्तसे जो ज्ञान मद्याकार अर्थात् मलिन तथा मूर्छित हो जाता है, वह भी ज्ञान ही है, ज्ञान मदिरामय (विकारी) कभी नहीं हो सकता है। भावार्थ--शंकाकारकी दृष्टिसे वैभाविक परिणमन कोई चीज नहीं है । वह कहता है कि जिस समय मदिराके निमित्तसे ज्ञान मालिन्य रूपमें आता है उस समय वह ज्ञान ही तो है, चाहे वह किसी रूपमें क्यों न हो। शंकाकारने ज्ञेयके निमित्तसे बदलनेवाले ज्ञानमें कुछ भी अन्तर नहीं समझा है इस लिये उसके कथनानुसार स्वाभाविक शक्ति ही मानना चाहिये । वैभाविक शक्तिकी कोई आवश्यकता नहीं है। उत्तरनैवं यतो विशेषोस्ति वडावडावबोधयोः । मोहकर्मावृतो बहः स्यादबद्धस्तद्त्ययात् ॥ ६६ ॥ अर्थ-जो पहले शंकाकारकी तरफसे यह कहा गया था कि मदिराके निमित्तसे बदला हुआ ज्ञान भी ज्ञान ही है और ज्ञेयाकार होनेवाला भी ज्ञान ही है, ज्ञानपना दोनोंमें समान है । इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि यह बात नहीं है क्योंकि विना किसी अन्य निमित्तके (केवल ज्ञेयके निमित्तसे) ज्ञेयाकार होनेवाले ज्ञानमें और मदिराके निमित्तसे बदलने वाले ज्ञानमें बहुत अन्तर है। मदिराके निमित्तसे जो ज्ञान बदला है वह ज्ञान मलिन है, उस ज्ञानमें यथार्थता नहीं है। यथार्थता उसी ज्ञानमें है जो कि वस्तुको यथार्थ रीतिसे ग्रहण करता है । जो ज्ञान केवल ज्ञेयके निमित्तसे ज्ञेयाकार होता है वह वस्तुको यथार्थ ग्रहण करता है इसलिये दोनों ज्ञानोंमें बड़ा अन्तर है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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