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________________ अध्याय । सुबोधिनीटीका। [३२३ कपोत लेश्यावाला जीव-क्रोधी, अन्यकी निंदा करनेवाला, दूसरोंको दोषी कहनेवाला, शोक और भय करनेवाला दूसरेकी सम्पत्ति पर डाह करनेवाला, दूसरे का तिरस्कार करनेवाला, अपनी प्रशंसा करनेवाला, दूसरे पर विश्वास नहीं करनेवाला, अपने समान दूसरोंको (दुष्ट) समझनेवाला स्तुति करनेवाले पर प्रसन्न होनेवाला, अपने हानि लाभको नहीं समझनेवाला, रणमें मरनेकी इच्छा रखनेवाला, अपनी प्रशंसा करनेवालेको धन देनेवाला, और कार्य अकार्यको नहीं समझने वाला होता है ।+ पीत लेश्यावाला जीव कार्य अकार्य तथा सेव्य असेव्यको समझनेवाला, सबोंपर समान भाव रखनेवाला, दया रखनेवाला, और दान देनेवाला होता है । * पद्म लेश्यावाला जीव-दानी, भद्र परिणामी, पुकार्यकारी, उद्यमी, सहनशील, और साधु-गुरु पूजक होता है के शुक्ल लेश्यावाला जीव-पक्षपात रहित, निदान बन्ध नहीं करनेवाला समदर्शी इष्ट अनिष्ट पदार्थोंसे राग द्वेष रहित, और कुटुम्बसे ममत्व रहित होता है x छहों लेश्याओंवाले जीवोंके विचारोंके विषयमें एक दृष्टान्त भी प्रसिद्ध है-छह पथिक जंगलके मार्गसे जा रहे थे, मार्ग भूलकर वे घूमते हुए एक आमके वृक्षके पास पहुंच गये। उस वृक्षको फलोंसे भरा हुआ देखकर कृष्णलेश्यावालेने अपने विचारों के अनुसार कहा कि मैं इस वृक्षको जड़से उखाड़कर इसके आम खाऊंगा, नीललेश्यावालेने अपने विचारोंके अनुसार कहा कि मैं जड़से तो इसे उखाड़ना नहीं चाहता किन्तु स्कन्ध (नड़से ऊपरका भाग) से काटकर इसके भाम खाऊंगा। कपोतलेश्यावालेने अपने विचारोंके अनुसार कहा कि मैं तो बड़ी २ शाखाओंको ही गिरा कर आम खाऊंगा। पीतलेश्यावालेने अपने विचारों के अनुसार कहा कि मैं बड़ी २ शाखाओंको तोड़कर समग्र वृक्षकी हरियालीको क्यों नष्ट करूँ, केवल इसकी छोटी २ + रूसह जिंदह अण्णे, दूसइ बहुसो य सोय भय बहुलो। असुयह परिभवइ परं पसंसये अप्पयं बहुसो ॥ णय पत्तियह परं सो अप्पाणं यिव परपि मण्णंतो । थूसह अभित्थुवंतो णय जाणइ हाणि वड़ि वा ॥ मरणं पत्येइ रणे देह सुबहुगं वि थुन्यमाणोदु । ण गणह कजाकजं लक्खणमेयं तु काउस्स ॥ * जाणइ कबाकजं सेयमसेयं च सव्व समपासी । दयदाणरदो य मिदू लक्खणमेयं तु तेउस्स ।। * चागी भद्दो चोक्खो उज्जव कम्मो य खमदि बहुगंपि । साहु गुरु पूजण रदो लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥ xणय कुणह परखवायं णविय णिदाणं समोय सव्वेसिं । यि य रायडोसा होवि य सुकलेस्सस्स ॥ गोमहसार।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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