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________________ ३२० ] पचाध्यायी । [ दूसरा अगृहीत - जिनको पहले कभी ग्रहण नहीं किया था ( ३ ) गृहीतागृहीत जिनमें से कुछको पहले ग्रहण किया था, कुछ को नवीन ग्रहण किया है। योगके साथ ही कषायका उदय रहता है। वह आए हुए कर्मोंमें स्थिति अनुभाग बन्ध डालता है। आये हुए कर्म - आत्माके साथ बँधे हुए कर्म कितने का ठहरेंगे, और उनमें कितना रस पड़ा है यह कार्य कषार्योंका है। अर्थात् कर्मों में नियमित काल तक स्थिति डालना और उनकी इस शक्ति में हीनाधिकता करना Sairat कार्य है । जिस प्रकार योगोंकी तीव्रतासे अधिक कमौका ग्रहण होता है उसी प्रकार कषायों की तीव्रता कमौमें स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध अधिक पड़ता है। मन्द कषायसे मन्द पड़ता है । इस प्रकार प्रकृतिबंध * प्रदेशबंध योगसे होते हैं। स्थिति बंध अनुभाग बन्ध कषायसे होते है। योग कषायके समुदायका नाम ही लेश्या है । इसलिये लेश्या ही चारों बंधोंका कारण है । लेश्याके दो भेद हैं ( १ ) भावलेश्या ( २ ) द्रव्यलेश्या । वर्णनाम कर्मके उदयसे जो शरीरका रंग होता है उसे ही द्रव्य लेश्या कहते हैं । द्रव्य लेश्या जन्म पर्यन्त एक जीवके एक ही होती है। जिसका जैसा शरीरका रंग होता है वही उसकी द्रव्य लेश्या समझनी चाहिये । द्रव्य लेश्याके रंगोंके भेदसे अनेक भेद होजाते हैं । स्थूलतासे द्रव्य लेश्या के कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल ऐसे छह भेद हैं । तथा प्रत्येकके उत्तर भेद अनेक हैं । वर्णकी अपेक्षासे भ्रमरके समान कृष्णलेश्या, नीलमणि ( नीलम ) के समान नीललेश्या, कबूतर के समान कापोती लेश्या, सुवर्ण के समान पीत लेश्या, कमलके समान पद्मलेश्या, शंखके समान शुक्ललेश्या होती है । इनमें प्रत्येक तरतम वर्णकी अपेक्षासे अथवा मिश्रकी अपेक्षासे अनेक भेद हैं। तथा इन्द्रियोंसे ग्राह्यताकी अपेक्षासे संख्यात भेद हैं। स्कन्धोंकी अपेक्षासे असंख्यात भेद हैं । परमाणुओं की अपेक्षासे अनन्त भेद हैं । गतिओंकी अपेक्षासे सामान्य रीतिसे द्रव्यलेश्याका विधान इस प्रकार है- सम्पूर्ण नारकियोंके कृष्णलेश्या ही होती है । कल्पवासी देवोंके जैसी भाव लेश्या 1 * प्रकृति स्वभावको कहते हैं। जैसे- अमुक पुरुषका कठोर स्वभाव है, अमुकका सरल है, स्वभाव के निमित्तसे उस स्वभावी पुरुषका भी वही नाम पड़ जाता है जैसे- कठोर स्वभाववाले पुरुषको कठोर कह देते हैं । सरल स्वभाववाले पुरुषको सरल कह देते हैं। इसी प्रकार किन्हीं कर्मों में ज्ञानके घात करनेकी प्रकृति-स्वभाव है । उस प्रकृतिके निमित्तसे उस कर्मको भी उसी प्रकृतिके नामसे कह देते हैं जैसे- ज्ञानावरण कर्म । यद्यपि ज्ञानावरण-ज्ञानका आवरण करना उसका स्वभाव है तथापि स्वभाव स्वभावी में अभेद होनेसे स्वभावीको भी ज्ञानावरण कह देते हैं। सभी कर्मों को इसी प्रकार समझना चाहिये । इस प्रकार आठों प्रकृतियों वाले आठों कमका बन्ध होना प्रकृति बंध कहलाता है। इतना विशेष है कि आयुकर्मका बंध उदयागत आयुके त्रिभागमें होता है। शेष खातों कर्मों का प्रति समय होता है ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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