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________________ पश्चाध्यायी। जब तक संसार है सिद्धावस्था नहीं होतीनेदं सिद्धत्वमेति स्यादसिद्धत्वमर्थतः। । यावत्संसारसर्वस्वं महानास्पदं परम् ॥११४४॥ मुख प्रकट होजाता है-इसीलिये सिद्धोंका परम शान्त-परम सुखी ऐसा विशेषण दिया है। मस्करी-मस्कफूर मतवाले मुक्त जीवका फिर संसारमें आना स्वीकार करते हैं इसको मिथ्या सिद्ध करनेके लिये सिद्धोंका विशेषण-निरञ्जन दिया है, अब उनके रागद्वेष अञ्जन नहीं है इसलिये अब वे कभी कर्मों के जालमें नहीं आ सकते हैं। कर्मोंका कारण राग देष है। जब कारण ही नहीं तो कार्य भी किसी प्रकार नहीं हो सक्ता है। इसलिये एकवार मुक्त हुए जीव फिर कभी नहीं संसारमें लौटते। आर्य समाज भी मुक्त जीवका लौटना स्वीकार करते हैं, उनका सिद्धान्त भी मिथ्या है । बौद्ध दर्शन मुक्त जीव (पदार्थ मात्र) को क्षणिक मानता है परन्तु सर्वथा क्षणिकता सर्वथा बाधित है, सर्वथा श्चणिक मानने पर मुक्ति संसार आदि किसी पदार्थकी व्यवस्था नहीं बन सकती है इसीलिये सिद्धोंका नित्य विशेषण दिया है। सिद्ध सदा नित्य है वे सदा सिद्ध पर्यायमें ही रहेंगे। उनमें अनित्यता कभी नहीं आसक्ती है । योगदर्शन मुक्त जीवको निर्गुण मानता है, नैयायिक और वैशेषिक भी मुक्त जीवके बुद्धि सुखादि गुणोंका नाश मानते हैं। ऐसा मानना सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि जीव गुण स्वरूप ही है। गुणोंका नाश माननेसे जीवका ही नाश हो जाता है। दूसरे-गुण नित्य होते हैं उनका नाश होना ही असंभव है। तीसरे-उक्त दर्शनवाले ही जीवका और गुणोंका समवाय सम्बन्ध बतलाते हैं और समवाय सम्बन्ध उन्हींके मतमें नित्य स्वीकार किया है, नित्य भी कहना और नाश भी कहना स्वयं उनके मंतसे ही उनका मत बाधित करना है। इसलिये गुणोंका सिद्धोंमें नाश नहीं होता किन्तु उनमें गुण पूर्ण रूपसे प्रकट हो जाते हैं इसीसे सिद्धोंका · अष्ट गुणसहित ' विशेषण दिया है । ईशान मतवाले मुक्त जीवको कृतकृत्य नहीं मानते हैं अर्थात् मुक्त जीवको भी अभी काम करना बाकी है ऐसा उनका सिद्धान्त है इसी सिद्धान्तके अन्तर्गत ईश्वरको सृष्टि कर्ता माननेवाले आते हैं। परन्तु शरीर रहित, इच्छा रहित, क्रिया रहित मुक्त जीवके सृष्टिका करना हरना कुछ नहीं हो सक्ता है। सृष्टि सदासे है। उसका करना, हरना भी असिद्ध ही है। और उपर्युक्त तीन बातोंसे रहित मुक्त जीवके भी उसका करता, हरता असिद्ध है। इसीलिये सिद्धोंका 'कृतकृत्य' विशेषण दिया है। सिद्ध सदा वीतराग-अलौकिक-आत्मोत्थ-परमानन्दका आस्वादन करते हैं उन्हें कोई कार्य करना नहीं है। मण्डली नामक सिद्धान्त मुक्त जीवको सदा ऊर्द्धगमन करता हुआ ही मानता है अर्थात् मुक्त जीव जबसे ऊपर गमन करता है तबसे बराबर करता ही रहता है कहीं ठह. रता ही नहीं। इस सिद्धान्तका निराकरण-'लोकाग्रनिवासी, इस विशेषणसे हो जाता है। जहां तक धर्म द्रव्य है वहीं तक अनंत शक्ति होनेके कारण एक समयमें ही मुक्त जीव चला जाता है, धर्म द्रव्यके अभावसे आगे नहीं जा सकता। धर्म द्रव्य लोक तक है इसलिये सिद्ध जीव लोकाममें ठहर जाते हैं।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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