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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका। rowivowww किन्तु स्वभावसे ही गोत्र व्यवस्था न्यायसङ्गत है। परम्परा गुण कर्म भी कारण हैं। इस प्रकारकी उच्चता और नीचता इस गोत्र कर्मके कारण ही आत्मा प्राप्त करता है, गोत्र कर्मके अभावमें वह अगुरुलघु है । न तो बड़ा है और न छोटा है, यह छोटा बड़ा उच्च नीच व्यवहार कर्मसे होता है । गोत्र कर्मने आत्माके उस अलौकिक अगुरुलघु गुणको छिपा दिया है। अन्तराय कर्मने आत्माकी वीर्य शक्तिको नष्ट कर रक्खा है। वीर्य शक्ति आत्माका निज गुण है, उसीको आत्मिक बलके नामसे पुकारा जाता है। शारीरिक बल और आत्मिक बलमें बहुत अन्तर है। शारीरिक बलवालोंसे जो कार्य नहीं हो सक्ते हैं वे आत्मिक बल वालोंसे अच्छी तरह हो जाते हैं। योगियोंमें यद्यपि शारीरिक बल नहीं है वे तपस्वी हैं साथ ही क्षीण शरीरी भी हैं परन्तु आत्मिक बल उनमें बहुत बढ़ा हुआ है उसीका प्रभाव है कि वे इतने साहसी हो जाते हैं कि सिंहोंसे भरे हुए अति भयानक जंगलमें निर्भय होकर ध्यान लगाते हैं। यह उनके आत्मिक बलका ही परिणाम है। बहुतसे विद्वान् मानसिक बलको ही आत्मीक बल समझते हैं उन्हें यह पूंछना चाहिये कि वह मानसिक बल ज्ञानसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तब तो सिद्ध हो चुका कि ज्ञानसे वल दूपरा गुण है, परन्तु ज्ञानमें वह सहायक अवश्य है, उसीके निमित्त ते मानसिक ज्ञानमें उसकी उपचरित कल्पना कर ली आती है। जितनी जिसकी आत्मिक बल शक्ति प्रबल है । उतना ही उसका ज्ञान भी पुष्ट होता है यदि ज्ञानसे वह अभिन्न है तो उसमें बल शब्दका प्रयोग किस आशयसे किया जाता है ? इसलिये यह बात निर्धारित है कि ज्ञानसे अतिरिक्त एक वीर्य नामा भी आत्माकी शक्ति है। उस शक्तिका शारीरिक बलसे सम्बन्ध अवश्य है। बाह्य शक्ति अन्तरंग शक्तिमें सहायक है। आत्मा जितना किसी पदार्थका ज्ञान करता है उतनी अन्तरंग बल शक्ति भी साथ ही उसमें सहायता पहुंचाती है। इसीलिये आचार्योंने जंगलमें निकल गये, वहां हाथियों का झुण्ड देखकर उनपर वे सिंहिनीके बच्चे, सिंह टूट पड़े, परन्तु इस भयास्पद कौतुकसे गीदड़ डरकर पीछे भागा। सिंहिनीके बच्चे भी अपने बड़े भाईवो लौटता हुआ देख लौट तो पड़े परन्तु उनसे न रहा गया, वे मातासे बोले मा ! आज ईमें बड़े भाईने हाथियोंकी शिकारसे रोक दिया है यह ठीक नहीं किया है। सिंहिनीने मनमें सोचा कि इसका कुल तो गीदड़ोंका है इसलिये इसमें डरपोक स्वभाव मेरे पास रहनेपर भी आ ही जाता है। उसने एकान्तमें उस गीदड़को बुलाकर उसे हितकर यह उपदेश दिया "शूरोसि कृतविद्योसि दर्शनीयोसि पुत्रक ! यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नो गजस्तत्र न हन्यते" हे पुत्र ! तू शूरवीर है, विद्यावान् है, देखने में योग्य है, परन्तु जिस कुलमें तू पैदा हुआ है उस कुलमें हाथी नहीं मारे जाते इसलिये तू शीघ्र ही अब यहांसे भाग जा, अन्यथा ये मेरे बच्चे तुझे कहां तक बचायें रखेंगे। तात्पर्य यही है कि कुलका संस्कार कितना ही विद्यावान् क्यों न हो, आ ही जाता है। वह उस पर्याय नहीं मिटता ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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