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________________ mmonw ww अध्याय। एबोधिनी टीका [ २९७ तेपि चारित्रमोहान्त विनो बन्धहेतवः। संक्लेशाङ्करूपत्वात् केवलं पापकर्मणाम् ॥ १०९८ ॥ अर्थ-दोनों प्रकारके भी भाववेद चारित्रमोहके उदयसे होते हैं इसलिये उसीमें उनका अन्तर्भाव हो जाता है । तथा संक्लेश स्वरूप होनेसे वे केवल पाप कमों के ही पन्धके कारण हैं। द्रव्यवेद बन्धका हेतु नहीं हैद्रव्यलिङ्गानि सर्वाणि नात्रवन्धस्य हेतवः।। देहमात्रैकवृत्तत्वे बन्धस्याकारणात्स्वतः॥१०९९॥ अर्थ-जितने भी द्रव्य लिंग हैं वे सभी बन्धके कारण नहीं हैं । क्योंकि शरीरमें उनका चिन्ह मात्र है और चिन्ह मात्र बन्धका स्वयं कारण नहीं हो सक्ता । शरीराकृति बन्धका कारण नहीं हो सक्ती है। मिथ्यादर्शन-- मिथ्यादर्शनमाख्यातं पाकान्मिथ्यात्वकर्मणः । भावो जीवस्य मिथ्यात्वं स स्यादौदायिकः किलः ॥११००॥ अर्थ-मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीवका जो मिथ्या भाव होता है वही मिथ्यावर्शन कहलाता है। वह जीवका औदयिक भाव है। मिथ्यादर्शनका कार्यअस्ति जीवस्य सम्यक्त्वं गुणश्चैको निसर्गजः। मिथ्याकर्मोद्यात्सोपि वैकृतो विकृताकृतिः ॥ ११०१॥ अर्थ-जीवका एक स्वाभाविक सम्यक्त्व गुण भी है, वह भी मिथ्यादर्शनके उदयसे विकारी-वैभाविक हो जाता है। उक्तमस्ति स्वरूपं प्रा मिथ्याभावस्य जन्मिनाम् । तस्मान्नोक्तं मनागत्र पुनरुक्तभयात्किल ॥ ११०२॥ ____ अर्थ-जीवोंको मिथ्या माव कितना दुःख दे रहा है उससे जीवोंकी कैसी अवस्था हो जाती है इत्यादि कथन पहले विस्तार पूर्वक किया जा चुका है इसलिये पुनरुक्तिके भवसे यहां उसका थोड़ा भी स्वरूप नहीं कहा है। अज्ञान भाव----- अज्ञानं जीवभावो यः स स्यादौदयिकः स्फुटम् । लब्धजस्मोदयाघस्माज्ज्ञानावरणकर्मणः ॥ ११०३ ।। अर्थ-ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाला अज्ञान भाव भी जीवका औदायिक
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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