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________________ २९०] vwwwwww पञ्चाध्यायी। [दूसरा . अर्थ-यदि कर्म बन्धका निमित्त कारण स्वयं जीव ही माना जाय तो जीव सदा कर्म बन्धका कर्ता ही बना रहेगा। फिर किसी जीवकी कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगी। इसलिये कर्म बन्धके करनेवाले आत्माके वैभाविक भाव कषाय भाव ही हैं। जब तक उन भावोंकी सत्ता है, तभी तक आत्मा कर्म बन्ध करता है, उनके अभावमें कर्म बन्ध नहीं करता है । जीव स्वयं कर्मबन्धका कारण नहीं है । किन्तु अशुद्ध जीव है। इत्येवं ते कषायाख्याश्चत्वारोप्यौदयिकाः स्मृताः। चारित्रस्य गुणस्यास्य पर्याया वैकृतात्मनः ॥ १०७५ ॥ अर्थ-इस प्रकार के चारों ही कषायें औदयिक कही गई हैं। वे कषायें भात्माके चारित्र गुणकी वैमाविक पर्यायें हैं। नोकषायलिङ्गान्यौदयिकान्येव त्रीणि स्त्रीपुनपुंसकात्। भेदाबा नोकषायाणां कर्मणामुदयात् किल ॥१०७६ ॥ ..., अर्थ-सीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेदके भेदसे तीन प्रकारके लिङ्ग भी औदयिक भाव है। ये भाव नो कषाय कौके उदयसे होते हैं चारित्र मोहके भेद. चारित्रमोहकमैतद्धिविघं परमागमात् । आचं कषायमित्युक्तं नोकषायं वितीयकम् ॥ १०७७ ॥ . अर्थ-जैनागममें चारित्र मोह कर्मके दो भेद किये हैं। पहला-कषाय, दूसरा नोकषाय। भावार्थ-जो आत्माके गुणोंको कषै अर्थात् उन्हें नष्ट करै उसे कषाय कहते हैं, और कुछ कम कषायको नोकषाय कहते हैं। नो नाम ईषत्-थोड़ेका है, ये दो भेद चारित्र मोहनीयके हैं। नो कषायके भेदतत्रापि नोकषायाख्यं नवधा स्वविधानतः । xहास्यो रत्यरती शोको भीर्जुगुप्सति त्रिलिकम् ॥ १०७८ ॥ अर्थ-नो कषायके नौ भेद हैं-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, वेद, नपुंसकवेद । भावार्थ-जिसके उदयसे हँसी आवे उसे हास्य 'नोकषाय' कहते हैं। जिसके उदयसे विषयोंमें उत्सुकता ( रुचि ) हो उसे रति कहते हैं। निसके ____x'हास्यो रत्यरती शोको भीर्जुगुप्सा त्रिलिङ्ग कम् । संशोधित पुस्तकमें ऐसा पाठ है । यही शब प्रतीत होता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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