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________________ 360) पञ्चाध्यायी । [ दूसरी मेब भी हैं। अनन्तानुबन्धि कषाय आत्मा के स्वरूपाचरणचारित्रका घात करती * प्रत्याख्यानावरण कषाय आत्मा के देशचारित्रका घात करती है । प्रत्याख्यानावरण | आत्माके सकल चारित्रका घात करती है तथा संज्वलन कषाय + आत्माके यथान्यातचारित्रका घात करती है । अनन्तानुबन्धि कषायका दूसरे गुणस्थान तक उदय रहता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायका चौथे गुणस्थान तक उदय रहता है । प्रत्याख्यानावरण कषायका पांचवें गुणस्थान तक उदय रहता है । संज्वलन कषायका दर्शवे गुणस्थान तक उदय रहता है । इन कपायोंका जहां २ तक उदय है वहीं २ तक ये अपने प्रतिपक्षी गुणों को नहीं होने देती हैं । इन कषायों का वासना काल इस प्रकार है-संज्वलन कषायका अन्तर्मुहूर्त, प्रत्याख्यान कषायका एक पक्ष अर्थात् १५ दिन अपत्याख्यान कषायका छह महीना और अनन्तानुबन्धिका संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त भव । वासनाकालका अभिप्राय यह है कि इतने काल तक इनका संस्कार आत्मामें बैठा रहता है । जैसे संज्वलन कषाय संस्कार केवल अन्तर्मुहूर्त्त तक ही रह सके हैं । प्रत्याख्यान कषायके संस्कार एकवार के बैठे हुए १५ दिन तक रह सक्ते हैं । इसी प्रकार औरोंका संस्कारकाल समझना चाहिये । इन सवोंमें अनन्तानुबन्धिका संस्कारकाल सबसे अधिक है । उसके संस्कार अनन्त भव तक रह सकते हैं । चारित्रमोहनीयका कार्य — अस्ति जीवस्य चारित्रं गुणः शुद्धत्वशक्तिमान् । वैकृतोस्ति स चारित्रमोहकर्मोदयादिह ॥ १०६० ॥ अर्थ — जीवका एक चारित्र गुण है, वह शुद्ध स्वरूप है परन्तु इस संसार में चारित्र मम कर्मके उदयसे वह विकृत हो रहा है अर्थात् अनादि कालसे चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे वह अशुद्ध हो रहा है । ÷ अनन्तं - अनन्त संसारं, अनुबन्धाति स अनन्तानुबन्धी, अर्थात् जो अनन्त संसारको बाँचे-बढ़ावे उसे अनन्तानुवन्धी कहते हैं। अनन्तानुबन्धीकषाय सम्यग्दर्शनका भी पात करती इसलिये यह संसार में अनन्तकाल तक भ्रमण करानेवाली है । x अ - ईषत् प्रत्याख्यानं - चारित्रं, आवृणोनि - रुणद्धि असौ अप्रत्याख्यानावरणः । अर्थात् थोड़े भी एक देश भी चारित्रको न हं ने दे उसे अस्याख्यानावरण कहते है। " * प्रत्याख्यानं - सं । लचारित्रं, अवृणोतीति उत्याख्यानावरणः । अर्थात् जो सकलचारिοन होने दे उसे प्रत्याख्यानावरण कहत हैं । संबलनः अर्थात् जो यथाख्यात + यो यथाख्यातं संज्वलयति भस्मसात् करोति सः म होने दे उसे संज्वलन कहते हैं।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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