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________________ . २८० ] पश्चाध्यायी। दूसरा ___बुद्धपूर्वक मिथ्यात्वके कतिपय दृष्टान्तबुद्धिपूर्वकमिथ्यात्वं लक्षणाल्लक्षितं यथा । । जीवादीनामश्रद्धानं अडानं वा विपर्ययात् ॥ १०४५ ॥.. अर्थ-बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्वका जो लक्षण किया गया है वह इस प्रकार है-जीवादिक पदार्थोका श्रद्धान नहीं करना, अथवा उनका उल्टा श्रद्धान करना। तथासूक्ष्मान्तरितदार्थाः प्रागेवात्रापि दर्शिताः। नित्यं जिनोदितैर्वाक्यैातुं शक्या न चान्यथा १०४६ ॥ - दर्शितेष्वेपि तेषूच्चै नैः स्यादादिभिः स्फुटम् ॥ ... न स्वीकरोति तानेव मिथ्याकर्मोदयादपि । * ॥ १०४७॥ अर्थ-सूक्ष्म पदार्थ-परमाणु धर्मादि द्रव्य, अन्तरित पदार्थ-राम रावणादि, दूस्खसी पदार्थ-सुमेरु अकृत्रिम चैत्यालय आदि । इसका वर्णन पहले भी आचुका है। ये पदार्थ जिनेन्द्र कथित-आगमसे ही जाने ना सक्ते हैं अन्यथा नहीं। इन पदार्थोका स्याद्वाद पारंगत आचार्योंने अच्छी तरह शास्त्रोंमें विवेचन किया है परन्तु मिथ्यात्व कर्मके उदयसे मिथ्यादृष्टि पुरुष उनको नहीं स्वीकार करता है । भावार्थ-जैनाचार्योंने प्रथमानुयोग-शास्त्रोंमें मोक्षगामी-उत्तम पुरुषोंके जीवन चरित्र लिखे हैं परन्तु मिथ्यादृष्टि पुरुष उस कथनको ही मिथ्या समझता है, वह समझता है कि जिन राम रावणादिका चरित आचार्योंने लिखा है वह केवल काल्पनिक है वास्तवमें राम रावण आदिक हुए नहीं हैं । यह आचार्योंकी कल्पना उपन्यासकी तरह समझानेके लिये है। इसी प्रकार सुमेरु, विदेह आदि जो उसके सर्वथा परोक्ष हैं उन्हें भी वह मिथ्या समझता है । मिथ्यात्व कर्मने उसकी आत्मापर इतना गहरा प्रभाव डाल दिया है जिससे कि उसकी बुद्धि सत्पदार्थोकी ओर जाती ही नहीं है । वास्तवमें जबतक तीव्र कर्मका प्रकोप इस आत्मापर रहता है तबतक इसका कल्याण होता ही नहीं है। जिन जीवोंका कर्म शान्त हो जाता है उनके अन्तरंग किवाड़ तुरन्त खुल जाते हैं और उसी समय वे सुपथमें लग जाते हैं। स्वामी विद्यानन्दि गौतम गणधर आदिके ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो कि पहले मिथ्यास्व कर्मके उदयसे उन्हीं पदार्थोंको भ्रमरूप समझते थे परन्तु पीछे निमित्तवश मिथ्यास्व कर्मके हट जानेसे उन्हीं पदार्थों को यथार्थ ममझने. लगे.। जो लोग न्हीं आचार्योकी कही हुई तत्त्व फिलासिफी (तत्त्व सिद्धान्त)को ठीक मानते हैं और उन्हीं आचार्योकी कही हुई प्रथमानुयोग कथनीको काल्पनिक समझते हैं उन्हें सोचना चाहिये कि * मिभ्याकदियादधाः ऐसा संशोधित पुस्तकमें पाठ है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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