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________________ २७८ । पञ्चाध्यायी दूसरा* मिथ्या भावको लिये हुए होता है । भावार्थ- बंधका कारण असलमें मिथ्यात्व भाव है और इसके मूल मिथ्यादर्शन व मिथ्याचारित्र ये दो भेद हैं और उत्तर भेद असंख्यात लोक हैं। मिथ्यात्वके संत्र से ही अन्य भाव भी बंधके कारण कहलाते हैं इसलिये मिथ्यात्व के सहमारी भावोंमें बंधके सावकपनेका नियम व्याप्त होकर रहजाता है और स्वरूपोपलब्धि मादर्शनका सहचारी मात्र नहीं है इसलिये उसमें यह नियम व्याप्त होकर नहीं रहता । अर्थादेकविधः स स्याज्जातेरनतिक्रमादिह । लोकासंख्यातमात्रः स्थादालापापेक्षयापि च ॥१०४०॥ अर्थ - अर्थात् वह मिथ्याभाव जातिकी अपेक्षासे एक प्रकार है, अर्थात् मिथ्याभावोंके जितने भी भेद हैं उन सत्रोंमें मिथ्यात्व है इसलिये मिथ्यात्वकी अपेक्षासे तो कौनसा ही मिथ्या भाव क्यों न हो सब एक ही है, और आलाप (भेदों ) की अपेक्षा से वह असंख्यात लोक प्रमाण है । आलापोंके भेद आलापोप्येकजातियों नानारूपोप्यनेकधा । एकान्तो विपरीतश्च यथेत्यादिक्रमादिह ॥१०४१॥ अर्थ — जो एक जातिका आलाप भेद है वह भी अनेक रूपों में विभक्त होनेसे अनेक प्रकार है । जैसे- एकान्त मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व इत्यादि । भावार्थ - मिथ्यात्व कर्मके अनेक भेद हैं परन्तु जो एक भेद है वह भी अनेक प्रकारका है, कभी इस जीवके विपरीत भाव होता है, कभी एकान्तभाव होता है, कभी संशयभाव होता है, कभी अज्ञानभाव होता है। कभी विनयभाव होता है इत्यादि सभी भाव मिथ्यात्वके एक भेदमें ही गर्भित है । इसका खुलासा इस प्रकार है कि हर एक कर्मके अनेक भेद होते हैं और उन अनेक भेदों में प्रत्येक भेदका भी तरतमस्वरूप अनेक प्रकार होता है । दृष्टान्तके लिये ज्ञानावरण कर्मको ही ले लीजिये ज्ञानावरण कर्मके सामान्य रीति से पांच भेद हैं- मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण मनः पर्ययज्ञानावरण, केवलं ज्ञानावरण। उनमें जो मतिज्ञानावरण है वह भी अनेक प्रकार है, किसी वर्गणा में * तीव्र अनुभाग बन्ध होता है और किसी में कम होता है, किसी वर्गणाकी स्थिति अधिक पड़ती है, किसीकी कम पड़ती है। तथा एक प्रकारकी रसशक्ति रखने वाले भी कर्म भिन्न भिन्न कार्यों द्वारा फलीभूत होते हैं । इन्हीं कर्मोंके भेद प्रभेदोंसे आत्मा के भाव भी अनेक प्रकार के होते रहते हैं । वास्तवमें आत्माका ज्ञान गुण एक है, उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि भेद केवल कर्मोंके निमित्तसे हुए हैं. और उन भेदों में भी * वर्गोंके समूहको वर्गणां कहन हैं। समान अधिभाग प्रतिका रग करनवाले कर्म परमाणुको वर्ग कहते हैं । न २ वर्ग समूहको भित्र २ घणा ये होता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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