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________________ अन्याय । सुबोधिनीटीका। AAAA :: अर्थ-वह विकृत-मोहरूप भाव दर्शनमोहनीय तथा चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे होता है। इन दोनों काँका उदय बराबर अनादि सन्तति रूपसे संसारी जीवोंके हो रहा है। इन्ही दोनों कर्मोंके उदयसे आत्माकी जो विकारावस्था हो रही है उसे ही मोहरूप औदयिक भाव कहते हैं। · तत्रोल्लेखो यथासूत्रं दृङ्मोहस्योदये सति । तस्वस्थाऽप्रतिपत्तिवों मिथ्यापत्तिः शरीरिणाम् ॥ १०२८॥ अर्थ-सूत्रानुसार उस दर्शनमोहनीयके विषयमें ऐसा उल्लेख (कथन ) है कि दर्शनमोहनीय कर्मके उदय होनेपर जीवोंको तत्त्वकी प्रतीति (श्रद्धान) नहीं होती है अथवा मिथ्या प्रतीति होती है। भावार्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उदय होनेपर इस जीवकी विपरीत ही बुद्धि हो जाती है । उसे उपदेश भी दिया जाय तो भी टीक२ पदार्थो को वह ग्रहण नहीं कस्ता है, यदि करे भी तो उल्टे रूपसे ही ग्रहण करता है। मिथ्यात्त्रका ऐसा ही माहात्म्य है* इसोका खुलासा--- अर्थादात्मप्रदेशेषु कालव्यं विपर्ययात् । तत्स्यात्परिणतिमात्रं मिथ्याजात्यनलिकमात् ॥१०२९ ।। अर्थ-अर्थात् सम्यग्दर्शनकी विपरीत अवस्था हो जानसे आत्माके प्रदेशोंमें कलुषता आ जाती है और वह कलुपता आत्मा का मिथ्यात्वरूप परिणाम विशेष है। तत्र सामान्यमात्रत्वादस्ति वक्तुमशक्यता। ततस्तल्लक्षणं वच्मि संक्षेपादयुद्धिपूर्वकम् ॥१०३०॥ अर्थ-वह मिथ्यात्वरूप परिणाम सामान्य स्वरूपवाला है इसलिये उसके विषयमें कहा नहीं जासकता। अतएव बुद्धिपूर्वक उसका लक्षण संक्षेपसे कहते हैं । भावार्थ-एकेन्द्रियादि जीवोंके जो मिथ्यात्वका उदय हो रहा है वह अबुद्धिपूर्वक है-सामान्य है इसलिये विचन में नहीं आ सकता है।अतः उसका बुद्धिपूर्वक लक्षण संक्षेपसे कहा जाता है। अबुद्धिपूर्वक मिथ्यात्वकी सिद्धिनिर्विशेषात्मके तत्र न स्याडेतोरसिद्धता। स्वसंवेदनसिहत्वाद्युक्तिस्वानुभवागमैः ॥१०३१॥ अर्थ-सामान्य अर्थात् अबुद्धिपूर्वक मिथ्यात्वकी किसी हेतुसे असिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि अबुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व स्वसंवेदन ज्ञानसे भली भांति सिद्ध है। तथा युक्ति, अपने • मिच्छाहही जीवो उवह पवयणं ण सद्दहदि । सहहाद असम्भावं उपार वा अणुवरई । गोमसार।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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