SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका । [ २७१ - अर्थ गुण अनन्त हैं, मव कहे नहीं जा सक्ते हैं । उनमें से कुछ अधिक भी सद्रिः कहे जायं तो भी वचन गौरव होता है इसलिये पूर्वाचार्योंने उनमें से प्रसिद्ध कुछ गुणोंका निरूपण किया है। यत्पुनः कचित् कस्यापि सीमाज्ञानमनेकधा। मनःपर्ययज्ञानं वा तदर्थ भावयेत् समम् ॥ १०१६ ॥ तत्तदाबरणस्योचैः क्षायोपशमिकत्वतः॥ स्याद्यथालक्षिताद्भावात्स्यादत्राप्यपरा गतिः॥१०१७॥ अर्थ-जो कहीं किसीके अवधिज्ञान होता है वह भी अनेक प्रकार है, इसी प्रकार मनःपर्यय ज्ञान भी अनेक प्रकार है, इन दोनों को समान ही समझना चाहिये । दोनोंही अपने २ आवरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे होते हैं और कभी २ यथायोग्य भावाके अनुसार उनकी दूसरी भी गति होती है। भावार्थ-अबधिझानावरणी कर्मके क्षयोपशमसे अवधिज्ञान होता है, परन्तु देव और नारकियोंके भव प्रत्यय भी अवधिज्ञान होता है भवप्रत्ययसे होनेवाला अवधिज्ञान तीर्थंकरके मी होता है, अपवाद नियमसे तीर्थकरका ग्रहण होता है । यद्यपि भवप्रत्यय अवधिमें भी क्षयोपशम ही अन्तरंग कारण है तथापि बाह्य कारणकी प्रधानतासे भव प्रत्ययको ही मुख्य कारण कहा गया है । देव नारक और तीर्थकर पर्यायमें नियमसे अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम हो जाता है, इसलिये भवकी प्रधानतासे भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्तक ऐसे अवधिज्ञानके दो भेद किये हैं। और भी अनेक भेद हैं । अवधिज्ञान भवसे भवान्तर और क्षेत्रसे क्षेत्रान्तर जाता है उसे अनुगामी कहते हैं, कोई नहीं जाता है उसे अननुगामी कहते हैं, कोई अवधिज्ञान विशुद्ध परिणामोंकी वृद्धिसे बढ़ता है और बाल सूर्यके समान बढ़ता ही चा जाता है उसे वर्धमान कहते हैं, कोई संक्लेश परिणामों के निमित्तसे घटता ही चला जाता है उसे हीयमान कहते हैं, कोई समान परिणामोंसे ज्योंका त्यों बना रहता है उसे अवस्थित कहते हैं, और कोई अवधिज्ञान कभी विशुद्ध परिणामोंसे बढ़ता है, कभी संकेश परिणामोंसे घटता भी है उसे अनवस्थित कहते हैं। कर्मों के क्षयोपशमके भेदसे अवधिज्ञान के भी अनेक भेद हो जाते हैं, जैसे देशावधि, परमावधि, सविधि, । देशावधिके भी अनेक भेद हैं, इसी प्रकार परमावधि और सर्वावधिके भी अनेक भेद हैं। इतना विशेष है कि परमावधि और सर्वावषि ये दो ज्ञान चरम शरीरी विरतके ही होते हैं। छठे गुणस्थानसे नीचे नहीं होते हैं। सर्वावधिज्ञान क्षेत्रकी अपेक्षा तीनों लोकोंको विषय करता है, द्रव्यकी अपेक्षा एक पुद्गल परमाणु तक विषय करता है * इस प्रकार अवविज्ञानका बहुत बड़ा * यह कथन गोम्मटसारको अपेक्षासे है ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy