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________________ २६६ पंचाध्यायी | दूसरा अर्थ - इसी प्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी अपने २ आवरणसे आच्छादित होते हैं, और उनके आवरक कर्मका जितने अंशोंमें उदय रहता है उतने ही अंशों में ज्ञान भी तिरोभूल ( ढका हुआ ) रहता है । क्षायिक भाव यत्पुनः केवलज्ञानं व्यक्तं सर्वार्थभासकम् । स एव क्षायिको भावः कृत्स्नस्वावरणक्षयात् ॥ ९९९ ॥ अर्थ- जो केवलज्ञान है यह प्रकटरीतिसे सम्पूर्ण पदार्थोंका प्रकाशक है वह अपने सम्पूर्ण आवरणों के क्षय होनेसे होता है इसलिये वही क्षायिक भाव है । कमौके भेद प्रभेद - कर्माण्यष्टौ प्रसिद्धानि मूलमात्रतया पृथक अष्टचत्वारिंशच्छतं कर्माण्युत्तरसंज्ञया ॥ १००० ॥ अर्थ -- कर्मों के मूल भेद आठ प्रसिद्ध हैं और उनके उत्तर भेद एकसौ अड़तालीस हैं । भावार्थ - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरा ये आठ मूल भेद कर्मोके प्रसिद्ध हैं । उत्तर भेद १४८ इस प्रकार हैं-ज्ञानावरण के ५ भेद, दर्शनावरणके ९ भेद, वेदनीयके २ भेद, मोहनीय २८ भेद, आयुके ४ भेद, नामके ९३ भेद, गोत्रके २ भेद, और अन्तरायके ५ भेद | उत्तरोत्तरभेदैश्च लोकसंख्यातमात्रकम् ॥ शक्तितोऽनन्तसंज्ञं च सर्वकर्मकदम्बकम् ।। १००१ ॥ अर्थ-ये ही कर्म उत्तरोत्तर भेदोंसे असंख्यात लोक प्रमाण हैं, और सर्व कर्म समूह शक्तिकी अपेक्षा से अनन्त भी हैं । घातिया कर्म तत्र घातीनि चत्वारि कर्माण्यन्वर्थसंज्ञया । घातकत्वाद्गुणानां हि जीवस्यैवेति वाक्स्मृतिः ॥ १००२ ॥ अर्थ- -- उन मूल कर्मों में चार घातिया कर्म हैं, और घातिया संज्ञा उनके लिये अर्थानुकूल ही है, क्योंकि जीवके गुणों का वे कर्म घात करनेवाले हैं ऐसा सिद्धान्त है । अघातिया कर्म ततः शेषचतुष्कं स्यात् कर्माघाति विवक्षया । गुणानां घातका भावशक्तेरप्यात्मशक्तिमत् ॥ १००३ ॥ अर्थ - घातिया कर्मों से बचे हुए बाकीके चार कर्म अघातिया कहलाते हैं । ये कर्म 1 #
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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