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________________ अध्याय । सुबोधिनीटीका। । २५९ अर्थ-कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे सर्वथा निरपेक्ष जो आत्माका स्वाभाविक भाव है उसे ही पारिणामिक भाव कहते हैं । भावार्थ-द्रव्यकी निन स्वरूपकी प्राप्तिको ही पारिणामिक भाव कहते हैं । इस भावमें कर्मों की सर्वथा अपेक्षा नहीं है, किन्तु आत्म द्रव्य मात्र है। इत्युक्तं लेशतस्तेषां भावानां लक्षणं पृथक् । इतः प्रत्येकमेतेषां व्यासात्तद्रूपमुच्यते ॥९७३ ॥ अर्थ-इस प्रकार उन भावोंका लेशमात्र लक्षण भिन्न २ कहा गया । अब उनमेंसे प्रत्येक भावका स्वरूप विस्तार पूर्वक कहा जाता है । औदयिक भावके भेदभेदाश्चौदयिकस्यास्य सूत्रार्थादेकविंशति । चतस्रो गतयो नाम चत्वारश्च कषायकाः ॥ ९७४ ॥ त्रीणि लिङ्गानि मिथ्यात्वमेकं चाज्ञानमात्रकम् । एकम्वाऽसंयतत्वं स्यादेकमेकास्त्यसिडता ॥ ९७५ ॥ लेश्याः षडेव कृष्णाद्या क्रमादुद्देशिता इति । तत्स्वरूपं प्रवक्ष्यामि नाल्पं नातीव विस्तरम् ॥९७६ ॥ अर्थ-सूत्रोंके आशयसे औदयिक भावके इक्कीस भेद हैं । वे इस प्रकार हैं-गति ४, कषाय ४, लिङ्ग ३, मिथ्यात्व १, अज्ञान १, असंयतत्व १, असिद्ध १, कृष्णादिलेश्या ६ ये क्रमसे इक्कीस भाव हैं, इनका स्वरूप अव कहते हैं, वह नतो अधिक संक्षिप्त ही होगा और न अधिक विस्तृत ही होगा। गति-कर्मगतिनामास्ति कमैकं विख्यातं नामकर्मणि ।। चतस्रो गतयो यस्मात्तच्चतुर्धाधिगीयते ॥ ९७७ ॥ अर्थ--नाम कर्मके भेदोंमें प्रसिद्ध एक गति नामा कर्म भी है। गतियां चार हैं इस लिये वह गति कर्म भी चार प्रकारका कहा जाता है । ___गतिकर्मका विपाककर्मणोस्य विपाकादा दैवादन्यतमं वपुः। प्राप्य तत्रोचितान्भावान् करोत्यात्मोदयात्मनः ॥ ९७८ ॥ ... अर्थ-इस गतिकर्मके विपाक होनेसे यह आत्मा अपने ही उदयवश देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरक इन चार गतियोंमेंसे किसी एकको प्राप्त होकर उसके उचित भावों को करता
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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