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________________ अध्याय।] . सुबोधिनी टीका । . अर्थ-ऊपर जो शङ्का उठाई गई है वह ठीक नहीं है । क्योंकि जो रसादि पदार्थीका ज्ञान होता है वह स्वयं रस रूप नहीं हो जाता अर्थात् ज्ञान ज्ञान ही रहता है और वह अमूर्त ही है। यदि उस ज्ञानको मूर्त कहा जाता है तो उस समय केवल उपचारमात्र ही समझना चाहिये। भावार्थ-यदि जिस पदार्थका ज्ञान होता है वह स्वयं उसी रूप होजाय तो देव या मनुष्य जिस समय नारकियोंके स्वरूपका ज्ञान करते हैं तो क्या उस समय वे नारक स्वरूप हो जाते हैं ? इसलिये ज्ञान परपदार्थको जानता है परन्तु उस पदार्थ रूप स्वयंनहीं होजाता । जो क्षयोपशम ज्ञान है वह भी वास्तव दृष्टिसे अमूर्त ही है। क्योंकि आत्माका गुण है । ज्ञान मूर्त पदार्थोको विषय करता है इसलिये उसे मूर्त मानना यह केवल मूर्तका उपचार है । ज्ञानमें कोई मूर्तता नहीं आती है। ज्ञानको मूर्त माननेमें दोषन पुनः सर्वथा मूर्त ज्ञानं वर्णादिमद्यतः। स्वसंवेद्याद्य भावः स्यात्सजडत्वानुषङ्गन्तः ॥ २० ॥ अर्थ-ज्ञान उपचार मात्रसे तो मूर्त है परन्तु वास्तवमें मूर्त नहीं है। वह वर्णादिकको विषय करनेवाला है इसीलिये उसमें उपचार है। यदि वास्तवमें ज्ञान मूर्त हो जाय तो पुद्गलकी तरह ज्ञानमें जड़पना भी आ जायगा, और ऐसी अवस्थामें स्वसंवेदन आदिकका अभाव ही हो जायगा। भावार्थ-जहांपर मुख्य पदार्थ न हो परन्तु कुछ प्रयोजन या निमित्त हो वहांपर उस मुख्यका उपचार किया जाता है । जिसप्रकार लोग बिल्लीको सिंह कह देते हैं। बिल्ली यद्यपि सिंह नहीं है तथापि क्रूरता, आकृति आदि निमित्ताश बिल्लीमें सिंहका उपचार कर लिया जाता है । उसी प्रकार वर्णादिके आकार ज्ञान हो जाता है इसी लिये उस ज्ञानको उपचारसे मूर्त कह देते हैं, वास्तवमें ज्ञान मूर्त नहीं है अन्यथा वह मड़ हो जायगा।। निश्चित सिद्धान्ततस्माद्वर्णादिशून्यात्मा जीवाद्यर्थोस्त्यमूर्तिमान् । स्वीकर्तव्यः प्रमाणादा स्वानुभूतेर्यथागमात् ॥ २१ ॥ अर्थ-इसलिये वर्णादिकसे रहित जीवादिक पदार्थ अमूर्त हैं ऐसा उपर्युक्त प्रमाणसे स्वीकार करना चाहिये अथवा स्वानुभवसे स्वीकार करना चाहिये । आगम भी इसी बातको बतलाता है कि वर्णादिक पुद्गलके गुण हैं और बाकी जीवादिक पांच द्रव्य अमूर्त हैं। ___ लोक और अलोकका भेदलोकालोकविशेषोस्ति द्रव्याणां लक्षणायथा । षड्द्रव्यात्मा स लोकोस्ति स्यादलोकस्ततोऽन्यथा ॥ २२॥ .
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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